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________________ याटीका एवं हिन्दी विवेचना यवि भावकार्यत्व में तमघायिकारणसम्यत्व के सहवारग्रह और व्यभिचार के अग्रह से उक्त नियम माना भी जाय, तो भी उसके अनुरोध से नीलस्वाचिछन्न के प्रति पृथ्वोत्वाचवच्छिन्न को कारण मामना आवश्यक नहीं है क्योंकि समवापसम्बन्प से अन्यभावमात्र के प्रति तावात्म्यसम्बन्ध से व्यसामान्य कारण इस कार्यकारणभाव से मो उस नियम की उपपत्तिहो सकती है। अतः 'पृश्वीरवण्याप्य घटत्व विभिन्न है अथवा घटत्यध्याप्य पश्चीएष विभिन्न है इस में कोई विनिगमक म होने से दोनों ही पक्ष नहीं सिद्ध हो सकते। [घटन को विभिन्न मानने में बाधक ] इस के अतिरिक्त घटस्य के विभिन्नत्व में बाधक मो है। वह यह कि यदि घटाव विभिन्न होगा तो उसके जनकतावादक कपालयसयोगनिष्ठमाप्ति को भी विभिन्न मानना होगा। पयोंकि यदि घटजनकीचूत कपालन्यसंयोगमात्र में एक जाति मानकर तम्माप्तिपुरस्कारेण कपालयसंयोग को विमिन्नघटस्वामित्र के कारण माना जायगा तो ग्रामपश्यभिचार होगा और अभिघातत्यादि को संयोगनिष्ठघटनाकसाबस्छवकीम्रत विभिन्नजातियों का व्याप्य मानना होगा । अन्यथा उन जातियों में अभिघासस्य आदि का सकसे हो जायगा। प्रेसे मेरोदण्डाभिधात में अभिधासत्व रहता है किन्नु घटजनकताव चवको मूत संयोगमिष्ठजाति उस में नहीं रहती। एवं जक्तजाति मोवमात्मक कपालअनकसंयोग में रहती है किन्तु उस में अभियासत्य नहीं रहता-कौर अभिघातस्य एवं उक्त जाति दोनों जातियां घटनामफीभूतामिघातात्मसंयोग में रहती है। इस प्रकार घटस्व को विभिन्न मामने पर संयोगनिष्ठ घटजनकताबछेवकाजाति में मानात्व और अभिघासत्वादि में उक्तजातिकमाप्यस्व मानने पर अभिघातत्वादि में विभिन्नत्व की कल्पना करने में अत्यन्त गौरव होगा। न च जन्यद्रव्पजनकतावच्छेदिकव संयोगनिष्ठा जातिरुपेयते, न त घटादिजनकतावच्छेदिकापि, यत्र कपालयोः संयोगविशेषाद् द्रन्यान्तर भवति तत्र कपालत्वस्यैवाऽस्वीकारेण घटोत्पत्यनापत्तरिति धारयम, ताभ्यामेवोत्तरकालं संयोगविशेषेण घटारम्भदर्शनात् । न चोतरकाले प्रचणुकादिलक्षणकिचिदत्रयवापगमात् खण्डकपालान्तरमुत्पयते तत्रय घटजनकतावछेदिका जातिरिसि वाच्यम् तत्र किश्चिदययवापगमात् खण्डकपालोत्पति:, किश्चिदन्यवसंश्लेपान् महाफपालोत्पत्ति ति विनिगन्तुमशक्यबाद, ततः कपालान्तरोत्पत्तेरपि तत्र कपालन्यस्वीकारं विना दुर्घटत्वाच । "हन्त ! एवं घटत्त्वम्य नानात्वे घटसामान्ये कपालत्वेनापि हेतुत्वं भज्यत" इति चेत ? मज्यताम् , किं वरिष्यते ! न छात्राथें वेदोऽस्ति । न च घटजनकसंयोगविशेष प्रत्यपि कपालत्वेन हेतुन्वसुपेयमिति घटत्वनानास्त्रमावश्यकमिति वाच्यम्; कपालत्वेन तदुपादानरपे घटन्नघटजनकर्मयोगनिष्टजास्पादिनानायकम्पने गौरवान्, तदुपादानतावच्छेदिकाया यवैकल्याः स्वीकातु मुचितत्वात् । [ संयोग और जन्पद्य्य के सामान्य कार्यकारणभाव की शंका और उत्सर ] यपि यह कहा जाय कि-"घटावि के प्रति संयोगविशेष को कारण न मानकर जन्यम्यसामान्य के प्रति संयोग सामान्य कोही कारण मानने में लायब है। मतः संयोग में अत्यनध्य की
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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