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________________ क्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन aruvati का ही समवाय अनेक होता है। कारण, उत्पन्न होने वाले भावपदार्थो के समवाय को एक मानने पर जलादि में भी गन्ध का सम्बन्ध सम्भव होने से उसमें t ra की उत्पत्ति का प्रस होगा | गन्या के समवाय को अनेक मानने पर यह प्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि गन्धादि के समवाय के अनेक पक्ष में यह उत्तर दिया जा सकता है कि महावि में गन्ध का प्रागभाव न होने से गन्ध का समवाय सम्भव नहीं है एवं जहाँ जिस कार्य का सम्बन्ध सम्भव होता है वहाँ हो उसको उत्पत्ति मामी जाती है। किंतु घटत्व, सत्य आदि के समवाय को घटादि मे से भिन्न सामने में कोई युक्ति नहीं है, कि अनावश्यक गौरव है। अतः विभिन घटादि व्यक्तियों के अल में घटत्वादिसमवाय के सम्भव होने से इस मत में भी अन्तराल में घटत्वादि के प्रत्यक्ष की आपति सुनवार है। ६२ अपि अक्षणिक व्यापकस्वभावत्वे सामान्यं किं येनैव स्वभावेनैकस्मिन् पिण्डे वर्तते तेनैव पिण्डान्तरे ? आहोस्थिन् स्वभावान्तरेण १। यदि तेनैव ततः सर्वपिण्डानामेकत्वप्रसक्तिः, एकदेशकाल-स्वभावनियत पिण्डदृश्य भिसामान्यस्वभाव को ठीकृतवान् तेषाम् प्रतिनियतदेशकाल- त्वभाषैकपिण्डव । अथ स्वभावान्तरेण नदानेकस्वभावयोगात् सामान्यस्यानेकत्वप्रसक्तिरिति न किञ्चिदेव | P [ मिश्र पिंडी में एक-अनेक स्वभाव से जाति की वृति असंभव ] अतिरिक्त सामान्य को सिद्धि में एक और भी बाधक है जैसे, सामान्यदावी सामान्य को मि और अयक्तिसमवेत एक स्वभाव मानते हैं । श्रतः इसके बर्तन सम्बन्ध में वो विकल्प खड़े होते हैं । एक यह कि सामान्य जिस स्वभाव से एक पिण्ड में रहता है उसी स्वभाव से सश्य पिण्ड में भी रहता है? और दूसरा मह कि अन्य स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहता है ? इस में प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य जिस स्वभाव से एक पिण्ड में रहता है उसी स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहेगा तो सभी पिण्ड़ो में ऐश्य को मापत्ति होगी। क्योंकि उस स्वभाव में सामान्य को आश्रयता में एक fuuser from aधिकरण में उस पिण्डयक्ति का जो मित्रदेश काल मौर सनियत पिण्प्रमेव को व्याप्त दृष्ट है। अर्थात् इस प्रकार का व्याप्तिग्रह है कि स्वनियामकस्वभाय से निषय जो स्वाश्रयमिष्टवृतिता, तादृणवृतितानिरूपत्य सम्बन्ध से जो एलम कालस्थ मायमिवस पिण्डनिरूपित तावान होता है वह एस देशकालस्वभावनियत पिण्ड से अमिन होता है, जो एसपिण्डस्व से एसपिण्डनिपतिता, उसका नियामकस्यसाथ गोत्व का स्वभाव उस स्वभाव से नियम्य जो स्वाति अर्थात् बुलिता के मायभूत गोत्र में रहनेवाली वृतिता पल उक्तपिण्ड में है और उक्त विश्व का श्रनेव भी उक्त पिण्ड में है। अब यदि पोश्व में अभ्यगोदण्ड पिता मो यदि गोश्वनिष्ठ एतत्पिण्डनिरूपिता के नियामक स्वभाव से हो नियम्य होगी तो अन्य गोविन्ड भी उक्तसम्बन्ध से एतपिण्डनिरूपितवृत्तितावान् होगा । जैसे, स्व का अर्थ होगा एसपिण्डनिरूपित गोत्वनिष्टत्तिता, उसका नियामक स्वभाव होगा गोवस्वभाव, उससे नियम्य स्वा अयनिष्ठवृत्तिता होगी अन्यपि निरूपित सिला उस वृलिता का पिकस्य प्रभ्य पिण्ड में रहेगा । अतः अन्य पिण्ड में एसस्पिड के अनेव की प्रारति हो सकती है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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