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________________ ६८ [ शास्त्रवासात. लो. असम्बद्ध हुये बिना ही समस्त घटव्यक्तिओं में अनुस्यूत यानी विद्यमान होगा तो एक घट व्यक्ति का जपलम्भ होने पर घटत्वसमवाय के अभिव्यक्त हो जाने पर विभिन्न घटव्यक्तिओं के अन्तराल वेश में मी घटस्व के प्रत्यक्ष को भापति होगी। यदि यह कहा जाय कि 'अन्तरालदेश में वक्षःसयोग म होने के कारण उसमें घटत्व की उपलब्धि नहीं हो सकतो क्योंकि तत्तव्यक्ति में घटत्योपसम्म के प्रतितसव्यक्ति के साथ का संयोग कारमा होता है।' नो र तीक नहीं है क्योंकि अन्सरालदेश में पक्षासंयोग होने पर उक्त आपत्ति दुनिषार है। इस समायान में यह भी नहीं कहा जा सकता कि'तत्तवृष्यात में तसाधर्म के उपसभ के प्रतिततव्यक्ति में तमका अस्तित्व कारण होता है। अत: अन्तरालदेश में घटश्वका अभाव होने से वह घटस्य का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि जब एकही घदरवसमवाय विभिन्नघमण्यक्तिओं में किसी भी व्यक्ति का परित्याग न करते हुये अनुस्यूत होता है तो विभिन्न घटों के अन्तराल में घटश्वसमवाय की सत्ता होने के कारण यहाँ घरवाभाव नहीं माना जा सकता। यदि यह कहा जाय कि- "अभाव नित्य और प्रधिकरणमेद होने पर भी अमिन होता है अतः विभिन्न घटष्यक्तिओं के प्रसारालवेश में भी घटवाभाव है। अत एम उस देषा में घटस्वाभाव का प्रत्यक्ष हो जाने से उस देश में घटत्यप्रत्यक्ष की उपर्याप्त नहीं हो सकती'- तो यह कथम भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्तरालदेश में घटत्वामारज्ञानरूप प्रतियाधक के उत्पन्न हो जाने के बाद उस देश में घटत्वविशिष्ट की मुखि मले न हो मितु पटत्वाभाव और घनत्व दोनों के समूहालम्बन प्रत्यक्ष का प्रस्तुत पक्ष में परिहार नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाम कि "अन्तरालशब्द से सवादिरूप गोभिअपि को अपना मूर्तद्रव्याभाष को किवा आकाशाव के प्रदेश को ग्रहण कर उनमें गोस्वप्रत्यक्ष का आपावन नहीं हो सकता ।पयोंकि अपवादि विण्डो में गोस्व नहीं रहता और जो जहां नहीं रहना यहां उसका प्रत्यक्ष सामाग्यवायी को मान्य नहीं है, प्रतः अश्यादि में मोत्वसामान्य को वृति का प्रत्यक्ष न होना ही युक्तिसङ्गत है। इसीप्रकार मृताध्याभाव और प्राकाणावि प्रदेश में भी गोस्व का अभाव होने से वहां भी गोत्सप्रत्यक्ष न होना ही न्यायसंगत है।-"यह कथन भी हमारे उस कपन से निरस्त हो जाता है क्योंकि समस्त गोव्यक्तिओं में एक गोरन सामान्य को अनुस्यूत मानने पर विभिन्न योग्यक्तियों के अन्तराल में गोचलमवायहम गोत्वसम्बन्ध अपरिहार्य होने से यहाँ गोस्वाभाय बताना प्रसंगत है। यदि उक्त प्राप्ति के परिहार में यह कहा जाय कि-'जिस व्यक्ति में वक्षःसंयोग यद्देशाषच्छेवेन होता है तशावच्छेवेन उस व्यक्ति में तमाम का समवाय ही उस व्यक्ति में ताजम के प्रत्यक्ष का कारण है । गोपत्ति में वक्षःसंघाग जिस जिस देश से होता है उस उस देश से गोव्यक्ति में गोरख का लमघाय ही गोरव प्रत्यक्ष का कारण होता हैं। क्योंकि गोस्व समग्र गो में समवेत होता है प्रप्त एष गो में गोरष का प्रत्यक्ष होना रचित है, फिन्सु अन्तरालदेश में यशाषनलेवेन चा:संयोग होता है तहमा।यसभेबेन अन्तरालवेश के साथ गोस्व का समवायसम्बन्थ होने में कोई प्रमाणन होने से प्रन्स रालदेश में गोत्व के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह कार्यकारणभावण्य में अध्याप्यत्तिसमयेत पदार्थ के प्रत्यक्ष के प्रति ही माना जाता है। गोस्वा विसामान्य अध्यायति नहीं है, अतः उसके प्रत्यक्ष के प्रति ऐसे कारण की कल्पना नहीं हो समाप्ती। जो लोग जलादि में गन्धादिमी सतावारणा समवाय को एक मानकर अनेक मानते है उनके पास में भी उक्त प्राप्ति का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मन में भी गन्धादि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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