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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
कहने का आशय यह है कि नाश में भी सामान्य की अपेक्षा भाषांग को लेकर हो कारणकृतविशेष देखा जाता है, वह नाश के साथ अनुसरा भावांग के द्वारा ही होता है। तात्पर्य यह है कि तन्तुओं के पृथक्करण से पटका लगा होता है। तब पृथक्कुल तत्तु में पुरुष प्रयत्न जन्यत्व का दर्शन होता है किन्तु जब बायु के तीव्र आघात से मेघपटल का नाश होता है सब उस में किसी भी प्रकार से पुरुषमा का मन नहीं होता और इसप्रकार कारणकृत विशेषवर्शन और उस के प्रदर्शन के आधार पर ही नाश का प्रयोगजन्यत्व और विवसाजनितवरूप में विभाग होता है तो बसे उक्तरीति से नाश के विभाग की उपपत्ति होती है उसीप्रकार उत्पश्व के विभाग की भी उपपत्ति हो सकती है । क्योंकि प्रयोगनित और बिलमाजनित उत्पाद में उत्पादसामान्य की दृष्टि से कोई भेव न होने पर मी उपमान घट-पट आदि में कारणकृत विशेष का दर्शन होता है। आशय यह है कि घटपटादि में gore का वर्शन होने से उत्पाद में भी पुरुषप्रयत्नजन्यत्व गृहीत होता है किन्तु बिलसाजमित उत्पाधस्थल में पद्यमान में पुरुषप्रयत्नजन्यस्व का दर्शन न होने से उस उत्पादक ईश्वरप्रयत्नजन्म होने पर भी प्रयत्नजन्यस्व का दर्शन नहीं होता। अतः पुरुषप्रयामजन्यत्व के वर्शन और अदन के आधार पर उत्पाद का भी प्रयोगजनितस्थ और विसाजनितस्वरूप विभाग होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। सच बात तो यह है कि ईश्वर में जगत्कर्तुं स्व प्रमाणाभाव होने से असिद्ध है, अतः विमसाजनित में भी ईश्वरप्रयश्वभ्यत्व बता कर उस की अध्यावत्तकता बताते हुये उस के विभाजकत्व का निराकरण नहीं किया जा सकता ।
[यनन्यत्वा वन-दर्शनाचीज है ]
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यदि प्रयत्नजन्यश्व के दर्शन और अदर्शन के आधार पर उत्पाद का घट और अंकुरादि में क्रमशः कुलादि के रूपालसंयोजनरूपयापारजन्यत्व और मेघ के जलवर्षण रूपव्यापारजन्यश्य होने के कारण, व्यापारजन्यश्व का स्मरण कर परजायत्य से जो कृत और अकृत का बिभाग किया गया है उसकी उपपति न हो सकेगी क्योंकि उक्तपक्ष में यत्नन्यत्व दोनों में समान है । अन्तर केवल हो है कि घटादि में बस्तअन्धत्य का दर्शन होता है और अंकुरावि में नहीं होता। अतः प्रश्नजन्यस्व के दर्शन और अदर्शन के आधार पर उक्तरूप से किये गये उपाय के विभाजन का निराकरण नहीं किया जा सकता इस के विपरीत यदि यह कहा जाय कि घट-अंकुरादि में कृताकृत का जो विभाग किया गया है वह यस्नजन्यस्थ के दर्शन या अदर्शन के आधार पर नहीं किन्तु नजन्यता के वैलक्षण्य से किया गया है। अर्थात् घटावि यह यत्न को असाधारणजभ्यता का आश्रय होने से कृत कहा जाता है और यहन की साधारणजन्यता होने से अंकुमावि अकृत कहा जाता है। सोय ठोक नहीं, क्योंकि इस स्थिति में व्यापारजन्यत्व का त्याग करना निर्युसिक हो जायगा क्योंकि घटादि में नेतनयापारजन्यत्व और प्रकुशवि में प्रवेतनश्यापारजन्यस्य होने से व्यापारजन्यता के सक्षम से भी उन में कृताकृत विभाग की उपपत्ति हो पाती है। दूसरी बात यह है कि अनन्य और विसाजन्य उत्पाद में उत्पद्यमान से अतिरिक्त पत्रार्थकृत थियोष का प्रतिसंधान नहीं होता है तो भी दोनों उत्पत्ति में विलक्षणस्वभावता का अनुभव होता हो है । अत एव उत्पत्ति के स्वभावलाय के आधार पर उक्त रोति से उत्पाद के विभाग में कोई यात्रा नहीं है। इसलिये 'वैषमन्विरादि में जो विलक्षणोपश्व का अनुभव होता है सहूपविशिष्ट कार्यत्व हो याजन्यता का वाध्य होता है. करवसामान्य व्याप्य नहीं होता यह बात शिव के जगव कर्तृत्व के निराकरण के अवसर पर सम्मति अति प्रत्थों में कही गई है ।