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[ शास्त्रमा० त०७होर १
[विलसाजन्य उत्पाद का स्वरूप विवेचन] द्वितीय-
विसावमित उत्पाब का लक्षण है पुरुषव्यापाराजन्य उत्पाद । यद्यपि इस उत्पाव में पुरुषेतर यो कारक, तव्यापारजन्याव रहता है, तपापि वह उसका स्वरूपकथन हो सकता हैलक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उसे लक्षण मानने पर प्रायोगिक उत्पाद में अतिग्याप्ति हो जायगी, कारण, वह से पुरुषरयापारजन्य होता है उसीप्रकार पुरुक्षेतरकारकम्यापारजन्य भी होता है। यदि पुरुषलरकारकण्यापारमात्रजन्मत्त्व लक्षण किया जाय तो गौरव होगा 1 प्रतः पुरुषघ्यापाराम्याय में हो उस को विधान्ति होती है, क्योंकि पुरुषतरकारकथ्यापारमात्रजन्यस्व का प्रर्य होगा 'पुरुषसरकारकव्यापार से जो इतर व्यापार उस से अजम्प होते हुये पुरुषतरकारस्यापार से जन्म होना' । यहां पुरुषतरकारकव्यापार से इतरायापार पुरवस्यापार ही होगा। अतएव ताहोतरव्यापार का अजन्याय पुरुषव्यापारजन्यस्वरूप हो होगा। प्रतएव इतने को ही लक्षण मानना चरित है। क्योंकि लक्षणशरीर में पुसदतरकारकच्यापारजन्यत्व का निवेश गौरवापारक है।
कुछ लोगों का पह कहना है कि "प्रायोगिकोत्पाव भी तथ्य की अपेक्षा स्वाभाविक पानी पुरुषव्यापारानाथ होता है, अत: स्वाभाविक उत्पाद का उक्तलक्षण प्रायोगिक में अतिप्यास्त है" इस के उत्तर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त कपन नमानभिज्ञ पुरुष का कपन हो सकता है, पोकि प्रग्यापेक्षया उत्पाव होता ही नहीं। अतः प्रायोगिक उत्पाद में प्रध्यापेक्षया स्वाभाविकोपावस्व का घन असम्भव है।
[ स्वाभाविक उत्पादकल्पना में गौरब की व्यावृति] पवि यह शंका की जाप कि 'प्रायोगिक और स्वाभाविक उत्पाद में मेव मानने पर प्रायोगिक उत्पादकाल में पस्त से इतर कारणों के रहने से स्वाभाविकोपार की भी मापत्ति होगी। क्योंकि पानेतरकारण स्वाभाविकजापान के जनक होते हैं, अतः इस आपत्ति का वारण करने के लिये स्वाभाविक- सापाव में प्रयल के प्रतियार करव को कल्पमा और स्वामाविकोपाव में प्रतिबन्धकाभ'पविषया प्रथनामाषजन्याय की कल्पमा में गौरव होगा। प्रतः उत्पाद का उतभेव कल्पितअसङ्गत है"-सो यह अधित नहीं है । क्योंकि मेय आदि में घट-पट आदि के उत्था से विलक्षणोपाय अनुभवसिद्ध है। असः उत्पादों में उक्त भेव आवश्यक होने से स्वाभाविकोपाव में प्रयान के प्रति सधारप पाबि को करपना से होनेवाला गौरव उक्तड की सिद्धि में धक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह हैं कि यरन से इतर हेतुनों का स्वभावोत्कर्ष होने पर ही उम से स्वाभाविक स्पाव होता है। प्रायोगिकोत्पाबकाल में उन हेतुओं का स्वभावोत्कर्ष नहीं होता, इसीलिये प्रायोगिककाल में स्वाभाविकोपाव को आपत्ति नहीं होती । अतः स्पाभाविकोत्पाद में प्रयत्न के प्रतियशस्व की कल्पना भी अनावशरक है।
स च द्विविधः-समुदयनितः कलिकच । तत्र मूर्तिमद्व्याश्यवारब्धः समुइयजनितः, इतरश्चकात्तिक । आयोग्भ्रादीनाम्पादः, घटादीनामप्यप्रथमतया विशिष्टनाशस्य विशिष्टोत्यादनियनत्वात्। न हि मूवियव संयोगकतत्वं समृदयजनितलम् , विभागकतपरमापायापादेऽव्याप्तः, किन्तु मुनावयनियसत्यम् । तत्र तदवस्थाश्यवस्याप्यवस्थाविशेपात संभवीति ।