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________________ [ शास्त्रवार्त्ता० त० ७ फ्लो० 1 + , यत्तु एवं नाशमुत्पादस्य जन्यत्येऽपि तत्र प्रतियोम्यतिरिक्तकृत विशेषाभावात् भावेऽपि सर्वस्येश्वरप्रयत्न जन्यत्त्रात् प्रयोगजनितत्वं न विभाजकम् ' इति तत्तच्छम् नाशेऽपि सामायापेक्षया भावशमादाय कारणकृतविशेषदर्शनादेव तदप्रत्यूहात् ईश्वरस्य निरासाथ | न 'वेदेवम्, व्यापारजन्यत्यमपोथ पत्नजन्यत्वेन स्वयमेवोपपादितः कृताऽकृतविभागो घटारादौ दुःस्याद् | यन्नजन्यताविशेषेण तदुपपादने च व्यापारजनिताऽविशेषेणापि तदुपपत्तेः, मायाप्रतिसंघानेऽपि विलक्षण स्व मात्र त्याला नुभव साम्राज्याश्च अत एव 'देवकुलादानुभूयमानं त्रिलक्षणोत्पादवच्यरूपं विशिष्टकार्यत्वमेव यन्नजन्यतानियमम्, न तु कार्यसामान्यम् इति शिपिविष्टखण्ड नेऽभिहितमिति । 1 + पुरुषव्यापाराज्जन्य उत्पादो द्वितीयः । पुरुषेतरका रफव्यापारजन्यत्वं तु स्वरूपकथनमस्य, न तु लक्षणम्, प्रायोगिकेऽतिव्याप्तेः । तन्मात्रजन्यत्वं गुरुत्वाद विश्राम्यति, इति प्रायोगिकस्यापि द्रव्यापेक्षया स्वाभाविकन्याद् नैव युक्तम्' इति स्वपरिणत न यस्याभिधःनम्, तदपेक्षयोत्पादस्याभावादेव - प्रायोगिक - स्वाभाविकयन्यादयोर्भेदे प्रायोगिक काले यत्नेत्तर कारणानी सध्ये स्वाभाविकोपादापत्तिशरणाय तत्र यत्नप्रतिबन्धकत्वादिगौरवात् कल्पित एवायम्" इति चेदन, अभ्रादौ विलक्षणत्वादस्यानुभवसिद्धत्येन तत्यतिबन्धकन्नादिकल्पनागौरवस्यावाचकत्वात् यत्नेरहेतुना स्वभावोत्कभावेन प्रायोगिककाले स्वाभाविकानुत्पत्त्या सन्मतिबन्धकत्वाऽकल्पनाच्चेति । · | प्रयोगजन्यत्व को विभाजक उपानि मानने में शंका ] प्रस्तुत विश्वार में कलिपस विद्वानों का यह कहना है कि-नाश के समान उत्पाद को जम्य मानने पर भी उस में प्रतियोगो से अतिरिक्त किसी पदार्थ द्वारा कोई विशेष नहीं होता । अर्थात् उत्पाद चाहे वह पुरुषव्यापार से जन्य हो या चाहे विनता स्वभाव से जन्य हो उत्पाद समय में कोई अन्तर नहीं होता। यदि होता है तो उसे घट मेघावि उत्पथमान पदार्थों से उन का पार्थवच करने पर ही होता है। अर्थात् 'घटस्योत्पाषः' 'मेघस्योत्याय:' इसप्रकार प्रयोग से ही उत्पाद में लक्षण्य की प्रतीति होती है। अतः उत्पाद में प्रयोग और खिसा रूप फारणकृतविशेष का दर्शन न होने से, कारण के आधार पर उत्पाद का प्रयोगजनितत्व और दिलसाजनितत्य रूप से विभाग नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय घट पट आदि के उत्पादों में कुलाल तन्तुवाय आदि विभिन पुरुषों के प्रमत्नमन्यथ का वर्शन होने से और यदि के उत्पाद में उस का दर्शन न होने से उत्पाद का उक्त विभाग हो सकता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ईश्वर प्रयत्न कार्यमात्र का जनक होने से सभी उत्पादों में प्रयत्नजन्यत्व समान है। अतएव प्रयत्नजन्यत्वरूप प्रयोगजनितत्व किसी उत्पाव का व्यावकम होने से विभाजक नहीं हो सकता । [ प्रयत्नजन्यस्य के दर्शन-अदर्शन से विभाजन की उपपत्ति ] किन्तु यह कथन रद्ध है- क्योंकि नाश के समान उत्पाष का विभाग भी हो सकता है ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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