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स्या० का टोका एवं हिन्धी विवेचन ]
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यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः भ्राजन्ते सनया नयादिविजयग्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णा यस्य च सन्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदर
स्तेन न्याय विशारदेन रचितस्तोऽयमभ्यस्यताम् ।।७।। इति पण्डितश्रीपद्मविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायां सप्तमः स्तबकः ।
[स्थाद्वादमत का उपसंहार ] शास्त्रवार्ता के व्याख्याकार विद्वद्वर्य यशोविजयजी ने प्रस्तुत स्तबक का उपसंहार करते हुए 'व्यालाश्चेद.' से लेकर 'यथोपदेशं पर्यन्त के छः पद्यों से निम्न बातें कही है । (१) पहले पक्ष में उनका कथन यह है कि विष की ज्याला का प्रसार करने वाला सर्प शीघ्रता से गरुड़ के ऊपर विजय प्राप्त कर ले, और यदि हार हठह को मारे गले में कर रहे एवं अन्धकारसमूह सूर्य को छिपा लेने के लिए अपने बल का प्रयोग करने लगे तो कदाचित् इतस्ततः फैले हुए दुर्नय स्पाद्वादविद्या के विरोधी हो सकते हैं-जो एक असम्भव सी बात है। (२) दूसरे पध में उनका बक्तव्य यह है कि अन्य मतालम्बियों के नय स्याद्वाद के एक-एक अंश है अतः वे जैन शासम के लिए क्लेशकारक नहीं हो सकते, क्योंकि क्या यह सम्भव है कि सातज्वालाओं से जटिल अग्नि से हो इधर-उधर फैले अग्नि के छोटे-छोटे कण, उसी अग्नि का पराभव कर सकते हैं ? (३) तीसरे पद्म में उनका कथन यह है कि स्याद्वाब विद्या में जो एक कोई विलक्षण (अद्भत) रस है वह एकदेशदर्शी बाह्म मतों में सामान्य घरेलू बुद्धि वाले को प्राप्य नहीं है । स्पष्ट है कि पूर्ण विकसित मालती लता के सुगन्ध का जो हर्षाधायक उदगार अप्रतिहत रूप से प्रकट होता है वह पित्रुमन्द-नीमवृक्ष के कन्द समूह के चूर्ण से नहीं होता । (४) चौथे पत्र में उनका कहना है कि स्याद्वाद तत्त्व को समझने के इच्छुक व्यक्ति को विवेकबहुल एकमात्र अभ्यास का ही प्राश्रय लेना चाहिए यदि वह स्वयं ऐसा नहीं करता तो उसे स्पादबाद तत्त्व को उपलब्धि नहीं हो सकती, क्योंकि यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति सोना परखने वाले पस्थर पर सोना को कसकर दूसरे को उसकी शुद्धता नहीं बताता किन्तु सोने की शुद्धता जानने के लिए मनुष्य को स्वयं निकष पर सोने को कसना पड़ता है। (५) पांचवें पद्य में व्याख्याकार का कहता है-पलभर मध्यस्थता का अवलम्बन कर परीक्षा करने वाले अन्य मतावलम्बी स्याद्वाद का यत्किश्चित लक्षण जानते तो हैं किंतु अन्तिम दुनय से उत्पन्न मलिन वासना उन्हें कुटिल बना देती है। (६) छ? पद्य में उन्होंने यह सम्मति दी है कि मलिन वासना के विघ्न का नाश गुरुजनों के धरणार्चन से हो होता है, अत: जिस प्राज्ञ पुरुष को स्वावाद चिन्तामणि के लाभ की चाह है उसे सदेव गुरु उपदेश के अनुसार स्थावाद सत्त्व को समझने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। यस्यासन् ० इस श्लोक का अनुवाद पहले हो चुका है। पंडित श्रीपाविजय के सहोवर न्यायविशारद पंडितयशोषिजय विरचित स्यावादकल्पलतानामक शास्त्रवार्तासमुच्यय को यास्या में
सातवाँ स्तषक संपूर्ण