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________________ [ शास्त्रवास त० ७०२३ + rees के एकान्त का अभ्युपगम करने पर भी दो श्रयं उभयरूप से युगपत् शब्दबोध्य नहीं हो सकता क्योंकि उक्त उभयरूप से युक्त म अत्यन्तात् है कारण सत् पद के क्यार्थको सर्वा सद्मानने पर वह महासामान्य के समान धन्य व्यासूस नहीं होगा। अस वह घटान्वित भयं न हो गा, क्योंकि टसा नहीं है। एवं स पत्र के लवयार्थ को अर्थान्तर अर्थात् एकान्त अर्थान्तरसर्वथा सत् मानने पर जैसे पर रूप से अर्थ प्रसव होता है वैसे स्वरूप से भी असल होगा- अलः रविषाण के समान अलीक हो जाने से शब्दयोग्य नहीं होगा । १५८ + न च घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते विधिरूपे सिद्धेबद्ध एव तत्र पटाद्यर्थप्रतिपेध इति वाच्यम्, पढादेतत्राभावाभावे घटशब्दप्रवृत्तिनिमिश्वस्य घटत्वस्यैवाऽसिद्धेः । शब्दानां चार्थज्ञापक न कारकत्वम् इति तथाभूतार्थप्रकाशनं तथाभूतेनैव शब्देन विधेयम् इति नाऽसंबद्धस्तत्र पटार्थप्रतिषेधः । अथवा, 'सर्व सर्वात्मकम्' इति सांख्यमतय्यब छेदार्थे तत्प्रतिपेो विधीयते । न व तदभिमतार्थस्य सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याइतो निषेध इति वाच्यम् । विकल्पतः सिद्धस्यापि तं प्रति व्यवहारव्युदासाय निषेधचित्यात् । विकल्पतः सिद्धिश्व खण्डशोऽखण्डशो वेत्यन्यदेतत् । " [ पटादि अर्थ का प्रतिषेध असंबद्ध नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि "घट में पवन को प्रवृत्ति का पटस्वरूप भावात्मक निमित्त सिद्ध है, अतः उसी से घट में घटक के व्यवहार आदि का नियमन हो जायगा, इसलिये उस में पार्थ का प्रतिषेष सम्बद्ध है, अर्थात् उस में पटाचारमा असस्य का प्रभाव है इसलिये एक वस्तु में सत्त्व-प्रसव उमय का सम्बन्ध अयुक्त है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घट में पदादि के अभाव का पाद्यात्मना असत्य का अभाव मानने पर उस ने घट के प्रवृतिनिमित्त घटव की हो सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि पटाथात्मना अशस्य के भवाधिकरण पटादि में घटत्व नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि घटपटादि में पदाधारमा अरु वा मात्र समान होने पर भी घटशब्द की महीमा से ही घट को घटात्मकता सिद्ध होगी और पटादि में नहीं होगी, क्योंकि उस में प्रामाणिकों द्वारा घटब्द का प्रयोग नहीं होता" तो यह उचित नहीं है क्योंकि शब्द अर्थ का ज्ञापक होता है। कारक नहीं होता, अतः जो अर्थ जिस रूप में प्रमाणान्तर से सिद्ध है उस रूप से उस अर्थ के वाक मध्य से ही उस रूप से उसका प्रकाशन मान्य है। अतः घट में पटाथात्मना असत्व को घट से असम्बद्ध नहीं माना जा सकता, क्योंकि पटायाममा प्रसस्य के बिना उस की घटता ही सिद्ध नहीं हो सकती । [ सख्यम के निषेधार्थ पदादिरूप से अमय का निरूपण | अथश यह भी कहा जा सकता है कि घट में पदाथात्मना असश्व इसलिये मानना चाहिये जिससे 'पुरुष से मिश्र समस्त प्रकृतिरूप एकोपादानक होने से सर्वात्मक है। इस सांख्यमत का निषेध हो सके। यदि यह कहा जाय कि "सिद्ध अर्थ की सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों से सस्यमत का निषेध यह है असः उसका निषेध घट में पटाचारमा असत्य के अभ्युपगम का प्रयोजन नहीं हो सकता।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सब में सब का अभेद कल्पना से गृहीत है। उसी के कारण सब में सब को अभिनाश का व्यवहार भी प्रसत होता है, अत एव उस व्यवहार का निषेध भी
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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