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________________ PATR० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १५ ग्यायसङ्गत है । सब में सब के अमेव की काल्पनिक सिद्धि घटादिएकोपारामक होने से पटावि से अभिन्न है-इस रूप में सामान भी हो सकती है। तथा ए सोने से परास्तु से अभिन्न है-सप्रकार असा भी हो सकती है। इन दोनों ही प्रकार की सिद्धि से घटादि का पटाचास्मना व्यवहार प्रसक्त होता है प्रतः उसके निषेध के लिये पावि में पटाधारममा प्रसवका कम्युपाम प्रावश्यक है। यद्वा, नाम स्थापना-द्रव्य-भाय भिन्नेषु घटेषु विधिसिताऽविधित्सितप्रकारेण प्रथम द्वितीयों मङ्गो । तत्मकाराम्या युगपदयाभ्यः । यद्यविधिन्सितरूपेणापि षटः स्यावं तदा प्रतिनियतनामादिभेदव्यवहाराभारप्रसक्तिरिवि विधित्सितस्यापि मामलाम इति सर्वाभाव एव भवेत् । यदि य विधित्सितप्रकारेणाप्यघटः स्यानु तदा तमिवन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरेष । एकान्ताम्युपगमे च तथाभूतार्थस्याऽप्रामाणिकत्वादवाल्यः । [२-निक्षेपापेषा सप्तभंगोगत भगत्रय का उपपादन ] अथवा प्रथम तीन भङ्गों की उपपत्ति इसप्रकार भी हो सकती है कि घटादि पवार्थ नामस्थापना-मम्म-मावरूप मिक्षप चतुष्टय के मेव से आविष होता है। उन में कमी नामात्मस्वरूप से कमी पापानात्मकस्वरूप से, कमी प्रख्यात्मकबरूप से, तो कभी मावात्मकस्बा ले घटादि की विवक्षा होती है। जिस रूप से घावि विवक्षित होता है बस रूप से उस की तसा होती है और अम्पकप से उस को असस्ता होती है। अतः विवक्षित रूप से बस्तु को सत्ता बताने के लिये प्रश्मभंग को और अविवक्षितस्प से असत्ता बताने के लिये हितोषभंग की और दोनों रूपों से अप को पुगप रूप से विवक्षा करने पर अबाध्यता बताने के लिये तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। यह शंका नहीं की जा सकती कि-घट से विवक्षित याने विधिस्सितरूप से मत होता है जैसे अविधिस्सितहप से भी मन होता है-योंकि पवि विधिस्सिसहप के समान प्रविधिसितरूपसे भी घट मविपत होगा तो नाम स्थापनावि भेव से घर में मो मेवव्यवहार होता है उसका प्रभाव हो जायगा । फलतः विधिस्सितरूप से भो वरतुका अभाव हो जाने से सर्वाभाव को प्रसक्ति होगी। अत: घटादि को अविधिस्सितरूप से प्रसन्मानना मावश्यक है। इसीप्रकार यह भोपाका महीं की जा सकती कि 'घट जसे अविधिस्सितम्प से असता है उसी प्रकार विधिस्सितरूप से भी समय है-क्योंकि विधिसिसाप से भी असर मानने पर जस रूप से सस्व के प्राचार पर जो घटादिम्यवहार होता है उसका उच्छेव हो लामणा । अतः एकान्तवस्तु के अग्युपगम पक्ष में एकान्तमूतवस्तु प्रामाणिक न होने से वस्तु सपा अवाच्या व्यवहारातीत हा जायगी। अथया, स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामादिके यः संस्थानादिस्तस्वरूपेण षटः, इतरण सापटः, इति प्रथम-द्वितीयो । ताभ्यां युगपदमिधातुमशक्तेरवान्या । विधक्षितसंस्थानादिनेष यदीवरेणापि फ्टः स्यात् एकस्य सर्वघटसात्मकत्वप्रसविता, अथ विवक्षितेनाप्यषटः पटादाचित्र षटार्थिनस्तत्राऽन्यप्रवृत्तिप्रयक्तिः । एकान्तपक्षेऽप्ययमेर दोप इत्यसवादवाच्यः ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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