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[ शास्ववार्ता.लो. २३
[३-संस्थानादि से मंगवयापेक्षाभेदनिरूपणा । अथवा यह कहा जा सकता है कि नामस्मापनावि प्रत्येक घट का पृथक् पृपा भाकार नियत है मतः उन में एक एक घटका अपमें भाकार से सत्य है और सम्याकार से प्रसव है। इसी तत्त्वाऽसरव को मताने के लिये प्रथम और द्वितीय भङ्गप्रयस होते है । स्वसंस्थान से सरथ और परसंस्थान से असत्य इन दोनों का एकपप से पुगपत् बोध सम्भव नहीं होता है। इसी बात को बसाने के लिये तृतीयभङ्ग प्रत होता है। यह प्रावश्यक है कि विवक्षिससंस्थान से सत्य और अविवक्षित संस्थान से प्रसस्व माना जाय । क्योंकि प्रषिवक्षिप्तसंस्थान से भी सस्व मानने पर एक ही घर में सभी संस्थानों का सम्बाप हो मामे से एकयट में सर्वघटारमहर की प्रसक्ति होगी। इसी प्रकार पाह भी मामना आवश्यक है कि विवक्षित घट अविवक्षित संस्थामावि से ही असद है। किन्तु विवक्षित संस्थान से असत नहीं है क्योंकि विवक्षिप्त संस्थान से मी भसात माना जाममा सो घटपटाविल्म हो झापगा। अत एष जेसे पटादि में पटाों को प्रवृत्ति नहीं होती, उसो प्रकार विवक्षित घट में भी घायों की प्रवृत्ति न हो सकेगी। एकाम्त पक्ष में भी यही धोष होता है असएव उस पक्ष में सर्वथा घवापयस्वकी आपतिपतिया
अथवा, म्बीकृतप्रतिनियतसंस्थानादों मध्यावस्था मरूपम् , शूलकपालादिलक्षणे पूर्वोसरावस्थे पररूपम् , नाम्पा मदसत्त्वात प्रथम-द्विसीयो, युगपत्ताभ्यामभिधातुमसामान सृतीयः । मध्यावस्थावदितरावस्था यामपि यदि घटः स्यात , तस्यानायनन्तत्वप्रचितस्तदा स्यात् । यदि च मयावस्थारूपेणाप्यघटस्तदा सर्वक्ष घटाभानापत्तिः। एकानपक्षेऽप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यसन्धानवाच्यः।
[4-अयस्थाभद से भंगत्रय का उपपादन] अथवा जिस का विषप्तसंस्मान अम्पुपगत है ऐसे घटादि की तोम अवस्थाएं होती है-मध्यावस्था, पूर्वावस्था और उत्तरावस्था। पन में मध्यावस्या स्वरूप और पूर्व्हसरावस्था पररूप है। मंसे, भाषघट की कम्युनोचाविमस्व मध्यावस्था है और उसके पूर्व की कुशूल-पिशाधि अवस्था पूर्वावस्था है और कपाल-भग्नघट का भाग पानि उत्सरावस्था है। मध्यावस्थाको स्वरूप इसलिये कहा कि उसी अवस्था में प्राधान्मेन घर शम्य का व्यपदेश होता है। पूर्वोत्तर अवस्था में इस शादव का म्पपदेश म होने से उन्हें घट का पूर्वरूप कहा जाता है। इसप्रकार 'घर' गाय से निवेशयोग्य भाव प्रपनो मध्यापस्यास्मक स्वरूप से साव होता है और पूर्वोत्तरायस्थात्मक पर रूप से असव होता है । इस सस्करऽसस्व को बताने के लिये प्रथम द्वितीयभंग की प्रवृत्ति होती है । इन विभिन्नावस्मात्मकरूपों से घट के सत्त्वासरव का युगमव अभियान शस्य न होने से उसको बसाने के लिए सृतीय भङ्गको प्रवृत्ति होती है। मध्यावस्था से जो घट होता है वह पनि पूर्वोत्तरायस्था से घट हो तो घट श्रमावि ममास हो कामंगा । अर्थात् पूदोसरावस्था में भी घटनास्वव्यदेवा की प्रप्तति होगी। पवि घद पूर्षोसरावस्था के समान मध्यावस्था में भी मघट होगा तो घट का सादिक अमाव हो जायगा अर्थात मध्यावस्था में मी घठपद का प्रयोग न हो सकेगा । एकान्तपक्ष में घर को सर्वधा सत् या इस मामले के पक्ष में मी यही आपत्ति है, अतः एकान्ततः घट के असत् होने से सर्वथा अबाध्यत्व को प्रप्तति होगी।