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स्मालीका हिन्दी विवेचन
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ही हो सकता है अतः उक्त म्याय के विरोध से अनेकार्थकपव से युगपद अपाय का बोष नही हो सकता । किनु पुष्पवतन्ध से सूर्य और चन्द्ररूप अय का बोध हो सकता है, पथपिबह सूर्यब-बबरमाप मिन्न भिन्न धौ वास नहीं होता किन्तु सूर्य-चन्द्र उभयस्वरूप पूर्यचन्द्रोमपानुमत धर्म द्वारा होता है। यदि उस भ्याय का यह अयं महीं किया जायगा तो एकचार च्वरित एक पर से एक ही अपंधोष जता भ्याय से अनुमस होने के कारण घटपन से घटस्वरूप से समस्त घटों का मोष भी नही हो सकेगा। और पान वक्त न्याय का प्रस्तुत अर्म स्वीकार किया जायगा तब किसी सांकेतिक पत्र के सकल उचारण से भी सत्यमोर तस्व उभय साधारण किती धारा सत्त्वाऽसत्योभपका युगपद बोथ होने में कोई बाधा हो नहीं सकती"-सो इस कपन को मापाततः स्वीकार कर के यह कहा जा सकता है कि सत्त्व-प्रसत्त्व उभयसापारमा किसी प से सत्वाऽसत्त्व का किसी एक पब से युगपद सम्भव होने पर मो प्रातिस्विरूप से पर्याद सत्त्वमाप्रति एवं प्रसवात्रतिरूप से सत्त्व असश्या युगपत् प्रवक्तव्यस्व तो अक्षुण्ण ही रहेगा । अतः बस्तु को स्थावक्तव्य मानने में कोई माया नहीं है ।
[उहाल मत वाच्यताशधक नहीं है ] इस संवर्म में किसी उमरकल बसा का यह कहना है कि जैसे 'गङ्गापा मरस्म-घोषा' इस वाक्य नस्वार्थ में पक्ष काम के समय का और वशद के प्रम में गडापर के तौररूप लक्ष्पार्थ का मुगप अम्बय होता है वप्तीप्रकार सत् ५६ से, शक्ति द्वारा सवको और लक्षणा द्वारा प्रसवको उपस्थिति मान कर उन बोनों का समभिन्याहस घटाविशाग्य के पर्ष में युगपद अन्य मानने में कोई सति नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से प्रवृस प्रथम और द्वितीयमनसे होनेवालो प्रतीति की अपेक्षा सत्व-अप्सरस की पुगपशवरूभ्यता में कोई बाधा
सापर्म यह है कि जैसे प्रथम और द्वितीयमलों से सापेक्ष सत्व असत्व का बोध होता है चसप्रकार एकपर्व से सापेक्ष सत्यासत्य का बोध युगपवनही हो सकता । पोंकि श्रोता को बस्तु के सापेक्षसत्वाऽसस्थ को मुगपद् मिनासा है अत एव उस बिजासा के अनुरोध से वस्तु के सापेकर सत्यासत्व की ही युगपत् प्रवक्तव्यता तृतीयम से बतायी आती है । यदि यह कहा जाप कि-'स्यात पक्ष के समझिम्याहार में एक सद पब से शक्तिश्रीरलक्षणाद्वारा सापेक्ष सरवाऽसस्व का युगपराध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है। बोंकि सत पब के एक अर्थ में स्यात पत्र में अपेक्षा का प्रवाही जाने पर अन्य अर्थ में स्वास्थवार्य अपेक्षा के अश्वयकी कक्षा निवसतोजातीमत एवं से अम्बय महो हो सकता, अर्थात असे कमिकभनय से स्यास्पयाम्वित सत्यासत्व का बोध होता है उसी प्रकार शक्तिले सत्व और लक्षणा से असव परक सत पर और स्यावर के परस्पर समभिसमाहार से स्मासपधार्यान्वित सस्वासस्व का दोष नहीं हो सकता।
___ अत एवं न निजान्तिरफान्ताभ्युपगमे यर्थस्य तथा वाच्यता, तथाभूतस्प तस्याऽत्यन्तास वात् , सर्वधा सम्वेऽन्यतोऽध्यापसवान महासामान्ययन षटार्थत्यानुपपतेः, अर्थान्तरन्ये पररूपादिनन स्वरूपादपि व्यावृत्तः, खरविषाणयसत्तावान्यतैब अति यदन्ति ।
[एकान्त शक्यार्थ लक्ष्यार्थ का युगपत् शाब्दबोध अशक्य ] एवं सत् पाच के निमार्थ-पापयार्य सस्व के एकान्त का मम्युपगम एवं अन्तर-पयार्ष