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________________ [ शास्त्रमा तरलो. २३ कोई शक संक्यावाची नहीं है असः सवसत बन्यों का विगु समाल मान कर भी सवास रथ का युगपत् प्रतिपारन नहरें माना जा सकता । कर्मधारय समास पी भामा विना ( लस मामा से गुप्प का प्रतिपावन नहीं कर सकता। सत्-मत्सत् पद के एकशेष से भी उक्त धर्म के घोष का समर्थन सम्भव नहीं है क्योंकि उम शम्बों में एकशेष का विषायक कोई शास्त्र नहीं है। दूसरी बात यह है कि यह भी तन्त्र के समान ही बर्ष का प्रतिपायक होता है अतः उनके निरास से उसका भी निरास हो जाता है। उक्त समासों से भिन्न कोई समास नहीं है जिसके द्वारा सस्व-सप्तत्त्व रूप गुणदय में युगपा समस्तपद की पापाताको सम्भावना को जा सके । जब समास वाक्य से उक्त धर्मदय का युगपद् पोष सम्भव नहीं है तो वियह वाक्य से मोबह सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि विग्रहबापय वृत्ति समरस समाप्त का अभिवापंक होता है | समास और विग्रह से भिन्न ऐसा कोई अकेला पर या माश्य लोकप्रतिम नहीं है जो अकेले युगपद उत्तपतय का प्रतिपादक होक्योंकि मो मो ऐसा पर या पाश्य होता है वह एक दूसरे की अपेक्षा से हो इण्यादि मर्थ का बोधक होता है। असः वह तथाभूत अर्थ का अर्थाव सरपअसत्त्व उभय प्रमों से माश्लिष्ट एक अर्य का अकेले प्रतिपावक नहीं हो सकता। यदि यह शंका कि जाय कि-"जैसे 'पुष्पदन्त' पव युगपद सर्प और चन्द्रका पोषक होता है एवं 'तो सर्वस पाणिमित्र [ ३.२-१२७] में सव' संज्ञापन राष्ट्र और शामम् प्रत्यय युगल का युगपत् बोषक होता है उसीप्रकार कोई एक सांकेतिक पच सत्व और असरव का मी युगपद योधक हो सकता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पुष्पदन्त पद से क्रमशः सूर्य चरको उपस्थिति होती है एक साथ नहीं। तथा 'सत्' यह राजा पर भी युगपत् उक्त अर्घद्रय का बोधक न होकर क्रम से हो बोधक होता हैम्पोंकि यह न्याय है कि एक बार उच्चरित पर एक ही अर्थ का बोधक होता है । "एक पदमेकदकधमांच्छिममेवा) बोधयति' इतन्न्यायाय, तेन नानार्थकशब्दस्थल एकपदानुभयोपस्थितावपि नोभयकोषः (किंत) पुष्पदन्तादिपदाद रवि-चन्द्रायुभयत्वेनोभय. योधस्तु सुघट एा, अन्यथा घटपदाद् घटत्त्वेनाखिलघटयोपोऽपि न स्यादिति चेत्र ? अस्वेसदापाततः, तथापि प्रातिश्विकरूपेणाध्यक्तध्यत्त्वमेव । एतेन 'सत्' इति पदादेव शक्त्या सत्यस्य, लक्षणया चासवस्योपस्थितिरस्तु, शक्प-लक्ष्ययोयुगपदन्ययस्तु 'गंगायो मत्स्य-घोषी' इत्यादाशिवोपपपते, इन्युालवावकोक्तावपि म क्षतिः, क्रमिकमजयजन्यप्रतीत्यपक्षया युगपदवक्तव्यत्वस्याऽवावात , श्रोतुस्तथा जिज्ञासयत्र तथोक्तेः, एकत्र जानवापेक्षान्वयस्य स्यात्पदस्येतस्त्र ध्यूपरताकाइयत्वेनोक्तवदन्ययाऽयोगान् । [ 'पुष्पदन्त' शब्द से एक साथ सूर्य-चन्द्र के पोध की आशंका का समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-"उक्त म्याप का अर्थ यह है कि एक पब एककाल में एकथर्मविशिष्ट ही पर्थ का बोधक होता है, इसलिये मानायक शम्मस्थल में एकपर से प्राय की उपस्थिति होने पर भी अभय का शाम्बयोष नहीं होता क्योंकि अनेकार्थकपद से तुम का बोध भित्र भिम पो बार
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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