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________________ स्या ठीका एक हिन्धी विवंचन] १५५ होता है । अल इतके अनुसार प्रथमदितीय भंगों से शवयोय की उपपत्ति के लिये अस्ति' आविषय को पूर्वोक्त अर्थ में सक्षणा की भावाश्यकता नहीं होती। ['स्या अवस्तध्य पृतीयभंग का गर्भितार्थ ] अब सरव भोर असरव आदि वो धमों से किसी वस्तु की युगपद एवकाल में विवक्षा होती है सब तृतीय भंग की प्रति होती है । उससे वस्तु की वो पो हारा युगपद कवि अवास्यता का बोध होता है क्योंकि कोई भी सामासिक अथवा सामासिक पच परस्पर में प्रधाम-विशेष्यभाव अथवा गौण-विशेषणभाव से धोनों भमोरे युगपक्ष प्रतिपावन में समय नहीं होता । जैसे सस्त और असस्थबोधक पदों के समास करने से निष्पन्न होने वाला 'सबसत' शश्व प्रधान अथवा गोण भाव से एक साथ उन बोनों का प्रसिपारक नहीं हो सकता क्योंकि यदि सबसव पधों का बहबोहि समास किया जामगा सो उससे तरवाइसव का प्रणाम अथवा गौणभाव से पुगप प्रतिपादन हो सकेगा क्योंकि महतीहि प्रन्य पदार्थ प्रधान होने से उस में समासघटक पदार्थ प्रधान नहीं होता। अतः सम्र और असत्सव तमासपटक पयार्य होने से बहवोहि से प्रधानभाष से घोध्य महीं हो सकता तपा गोणभाव से भी बोध्य नहीं हो सकता, क्योंकि उस बहसीहिजन्यबोध में अन्य पदार्थ का सबसस्सम्बन्धित्व प्रषा असारांशयासमय से ही हमोगः। श कावार्थ में गौण होता है किन्तु असा शबा सत् श दार्य में गोग नहीं होता और द्वितीय मोष में अलत शब्दार्थ सत् वाग्वा में गौण होता है किन्तु मत् शब्वार्थ असत् शवधाम में गौण नहीं होता। [अव्ययीभाषसमास की युगपत्प्रतिपादन में अशयित ] सध्ययीभाव समास से भी उक्त धर्मों का प्रधान अथवा गौण भाव से युगपत कोष महीं हो सकता क्योंकि प्रध्ययीभावसमास दो प्रकार का होता है. (१) अपय और भमन्यप पदों का-जैसे 'उपकुम्भव' 'अभिमुखस' सत्याधि । (२) सेवल अारम्पय पदों का असे पण्डाददि-शाकेशि । इन में सबसत पों में प्रथम मध्यमीभाष नहीं हो सकता क्योंकि उन दोनों में कोई प्रश्यपत्र नहीं है । दूसरा मध्ययीमाघ सत् असद पदों का "सत असत व विषयोकृत्य प्रवत्तमान सानं सबस' इस अर्थ में हो सकता है और उस समास के घटक सब और असत् पवाथों में परस्पर विशेषविशेष्यभयानापन्नत्व लक्षण प्रघामसा होने से उस अध्ययीभावाम.स ( सदसत ) में उभयपप्रधानता भी है. तथापि परस्पर प्रधान अथवा गौण भावापन्न स्वासस्थप अर्थ में उक्त समास की प्रवृति नहीं होती। [इन्द्र आदि ममास की युगपत्प्रतिपादन में अशनि] बन्द समास से भी प्रकृति अर्थ का अर्थात् प्रधामभाव अथवा गौणभाष से सत्वाऽसत्य का पुगपर प्रतिपावन नहीं हो सकता । क्योंकि म्यप्ति तन्न अर्थात हव्यार्थक पत्रों के द्वन्द्र को एक को अनुवाद करके अन्य के विविधया कोधन में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे द्रव्यापटों का धव-सवोत्यादि बस समास एक पदार्थ का अनुवाद कर अन्य पदार्थ का विधयतिथया बोधक नहीं होता । गुणवृत्तिवन्त अर्थात् गुणशेषकमवों का उन्द जैसे रक्तपीते' इत्मावि समास मी तम्यामित गुण का प्रतिपावक झोता है अतः उससे प्रधान भाव से गुणों का प्रतिपाषम नहीं हो सकता। तत्पुरष से मो धमंडय का प्रधाम अपवा गौणभाष से प्रतिपाबम नहीं हो सकता क्योंकि उस में असरफ्याय ही प्रधान होता है। द्विगुसमास में पूर्वपद के संख्यावाचिस्व का नियम है । सवसत् शानी में
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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