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स्या
टोका एवं हिन्दी विषम
है-उरपाव और विनाश से शून्म होना । इस स्थिति में एकवस्तु में एककाल में ये तीनों कैसे सम्भव हैं ? प्राशय यह है कि एककाल में उत्पाद और व्यय तथा प्रौषम होने का अर्थ है उसीकाल में सत्ता को प्राप्त करना एवं उसी काल में सत्ता से रष्ठित होना तथा उसीकाल में सत्ताको प्राप्ति और सत्ता का राहिस्य दोनों से असम्पत होना। स्पष्ट है कि मे तीनों परस्पर विरुद्ध होमे से एकवस्तु में एककाल में पटिस नहीं हो सकते ।।५।।
छट्ठो कारिका में इस आईतमत का कि “एकवस्तु में एककाल में उत्पाद का कार्य प्रमोर, विनाश का कार्य शोक और उत्पाद विनाशराहित्यरूप भौष्य का कार्य माध्यस्थ्य देखा जाता है। अम: जय उत्पादादित्रय का कार्य एक काल में एकवस्तु में होता है तो उनके कारणों के भी एक वस्तु में एककाल में होने में कोई सिरोष नहीं हो सकता क्योंकि प्रमाणसिद्ध मर्थ में विरोध नहीं हो सकता।"-प्रतिषाच किया गया है
नन्यकस्मिन्नेकदापादादित्रयकार्यशोक प्रमोद माध्यस्थ्यदर्शनाद् न विरोधः, प्रमाणसिद्धेऽर्थे विरोधाऽप्रसरान् , इत्यत आहमूलम्-शांक-प्रमोद-पाध्यस्थ्यमुना यच्चान साधनम् ।
तवयसांप्रतं यसमासनातुकं मतम् ॥६॥ यच्चान्त्र-त्रयात्मकले जगता, शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं साधनमुक्तम् , 'घट-मौलिमुवर्णाथी' [ का. २ ] इत्यादिना; तदप्यमांपतम् = अविचारितरमणीयम् , यत यस्मात् । सत्-शोकादिकम् , आन्तरवासना मत्तम् मतम् अभीष्टम् । न बस्नुनिमिसम्, वस्तुदर्शने नान्तरशोकादिवासनाप्रबोधादेव पटनाशादिविकल्पान शोकायुपत्तेः । यदि घ वस्तुनिमित्तमेव शोकादिकं स्यात् तदा राजपुत्रादिवदन्यस्याप्यविशेषण तत्प्रसङ्गः ॥ ६ ॥
[शोकादि का निमित्त है वासना] प्रस्तुत स्तबक को 'घटमालिसुवर्णाची' बस दूसरी कारिका से जो यह स्थापना की गई है कि 'सौवर्णघट के चक को जिस समय घटात्मना सुवर्ण का नाश होने से शोक होता है उसी समय मुक्टार्थों को माहात्मनामुषर्ण के उत्पाद से प्रमोद होता है और सुषर्णसामान्य केएलकको शोकप्रमोवविरहरूप माध्यस्थ्य होता है क्योंकि एट की प्राकांक्षा न होने से उसे घटविनाश से शोक नहीं झोसा और मुफुट की इच्छा न होने से मुकुटोमाद से प्रमोच भी नहीं होता है । उस प्रकार एक हो मुवर्णद्रव्य में एक ही काल में सोक, प्रमोद मौर माध्यस्य जमकता होने से उसी काल में उसका किसी एक रूप से विनाश, किसी अन्यरूप से उत्पाद और किसी रूप से उसका स्थर्य सिद्ध होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् उत्पाब-व्यय-धौम्यरूपात्मक है।"-वह स्थापना मी विचार न करने तक ही रमणीय प्रतीत होती है। कारण, पदारमना सुवर्ण के माश और मुकररात्मना सुवर्ण के उत्पाद एवं सूवत्मिना उसके स्थैर्य से जो शोक-प्रमोव और माध्यस्थम होने की बात कही गयी है वह मन्तरबासनामूलक है, पस्तुमूलक महीं है।
आशय यह है कि जिसे यह वासना है कि घटनामा से शोक होता है, मुकुटोत्पाद से प्रमोद होता है और दोनों ही वशा में सुवर्णसामान्म के स्थिर रहने से सुवर्णाथों को माध्यसभ्य होता है