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[ शास्त्रवासिलो ४-५
भान न होकर घूमसम्माग्य और वह्निसामान्य का व्याप्तिमाम पहले ही हो जाता है। अतः सामान्य लारणाप्रत्यासति आदि की कल्पना में गौरव होने से नेयापिक कधित रीति से ध्यप्तिमाम का अभ्युपगम पिता नहीं है। दूसरी बात यह है कि मधक्ति की हो याचन प्रश्य समस्त धूमष्यक्तियों से अमिनहर में प्रत्यभिक्षा होती है अतः उसके अमुरोध से एफ धमक्ति में अन्य समस्त मन्यक्तिमों का अभेद मानना उचित है और वह धमव्यक्तिओं को सामान्यधिशेषात्मक मानने पर सो सम्मवित हो सकता है । आशय यह है कि लमस्त धूम तत्तापक्तित्वरूप से परस्पर मिन्न है और धूममामान्यरूप से अभिन्न है।
इस प्रकार वस्तुमात्र सामान्यविशेषरूप होने से गोरस के एष्टान्त से एककाल में ही एकवस्तु में जो उत्पाव-व्यय-नौम्यरूपता बतायी गई है वह सपा सुसंगत है ।।३।।
बौधी कारिका में बौद्धों की ओर से वस्तु को उत्पाद ध्यय एवं प्रोग्यरूपता का प्रतिमा किया गया है -
अत्र परेषा पूर्वपक्षवा माइमृलम्-अन्नाप्यभिदधायन्ये विमल हि मिस्त्रयम् ।
एकत्रेकदा नलघटा प्राश्चति जातुधित् ॥४ ।। अत्रापि यात्मकतावादेषि अन्ये सौगतादयः अभिदधति, यदुत-विक हिविरुद्धमेव, मिथः परस्परम् , अगम् उत्पादादि। यत परम् , अत एकत्रव वस्तुनि, एकदा एकस्मिन् काले, एतत-त्रयम् , जातुचित कदाचित् न घटा प्राश्चतिन पटते ।। ४ ॥
'उत्पाव-स्वप-प्रीव्य ती वस्तु का तास्थिकरूप है' इस सिद्धान्त के संदर्भ में बोवादि प्रति पावो का यह कहना है कि उत्पाव व्यय और धोव्य घे तोनों परस्परविरुद्ध ही है क्योंकि एकवस्तु में, एक काल में ये तीनों कयापि उपपन्न नहीं हो सकते ॥ ४ ॥
५ वी कारिफा में उत्पावित्रय में परस्पर के विरोध को स्पष्ट किया गया हैमिथो विरोधमेवोपदर्शयनि-- मूलम्-उत्पादोऽभूतभवन विनाशसमझिपर्ययः ।
धीच्यं चोभय शून्यं पवेककन तत्कथम् ? ॥५॥ उत्पादोऽभूतभवनम् प्रागसनः सामग्रीवलादामलामः । विनाशस्तविपर्ययभृतम्यानन्तरमभावः । श्रीध्वं चोभयशून्यम्-उत्पाद-विनाशरहितम् पत्-यस्मान, सत्तस्मात् एकत्र वस्तुनि रकवा एकस्मिन फाले रुधम् : || ॥
[ एककाल में उत्पादादि परस्परविरुद्ध होने की शंका ] उपाव का अर्थ है अभूतभवन अर्थात जो पहले असद है (नहीं था) वाव में कारणसामग्री के बल से उसे स्व स्वरूप पानो ससा की प्राप्ति होती है। विनाश उत्पाद के विपरीत है प्रातः उसका मारूप है पूर्व में विद्यमान का बाद में विनाशक सामग्री के संनिधान से प्रभाव होगा । धौष्य का अर्थ