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[पास्त्रवात स्तः ७पलो.८
उसी को वस्तु दर्शन से उक्त वासनाओं का प्रबोध होने से घटताशाक्षिके माम मोकादि की उत्पति होती है । अतः शोकावि की उत्पत्ति घटनामादि वस्तु से नहीं होती किन्तु जसवासना के उद्घोष से सहात घटनश्शावि के नाम से होती है । शोकावियति वासना निमिसक न होकर वस्तुनिमित्तक होगा तो जरो मुन्टार्थों राजपुत्र को मुकुटोत्पाव होने से हर्ष होता है उसी प्रकार जो मुकुटामें नहीं है उसे भी मूकुटोस्पाय से हर्ष होना चाहिये, क्योंकि यदि मुकुटोस्पाव हो रामपुत्र के हवं का कारण है तो मुकुटोत्पाब राजपुत्रवत अन्य के प्रति भी समान है अत: अन्य को भी उससे हर्ष को उत्पति होनी चाहिये। किन्तु ऐसा होता नहीं है, अतः शोका यस्तुनिफर कि सामूमर है इसलिये शोकावि से वस्तु को उत्पाब-रुयम प्रौव्यात्मकता नहीं सिद्ध हो सकत ।। ५॥
७यों कारिका में वस्तु के उत्पादादिश्यामकप्ता मस में दोष का उपचय बताया गया है - उपच्यमाईमूलम्-किश्च स्यावादिनो नैव युज्यते निश्चयः क्वचित् ।
स्वतन्नापेक्षया तस्य न मानं मानमेव यत् till किश्च इति दूषणान्तरे, स्याद्वादिन पथचिन अधिकृते वस्तुनि निश्चयो नैव युज्यते यद्-यस्मात् तस्य स्वतन्त्रापेक्षया -स्वमिद्वान्तापेक्षया, मान-प्रमाणम् मानमेच म-प्रमाणामेष न, अनेकान्तच्याघातात् । एवं चानेकान्तानुरोधादप्रमाणीभूतं प्रमाण न निधायफ पटादिवत् ।। ७ ।। किञ्च,
[स्याद्वादी को प्रमाण भी अप्रमाण होने से शनिश्चयदमा ] ___ 'वस्तु उत्पादित्रयात्मक होती है इस मत में केवल यही वोप नहीं है कि यस्तु की उत्पादादिनमास्मकता का साधक कोई प्रमाण नहीं है, अपितु उसमें पह भी घोष है कि स्याद्वाबी के मत में किसी भी वस्तु का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि उसके मिसान्त की अपेक्षा प्रमाण भी केवल प्रमाण ही नहीं है क्योंकि प्रमाण को एकमात्र प्रमाणस्वरूप ही मानने पर वस्तु की अनेकान्तात्मकता का प्याधात होगा, अत: मनेकारत के प्रमुरोध से प्रमाण भी प्रप्रमाण रूप होता है और प्रमाण हो जाने पर वह अप्रमाणभूत घटावि के समान कोई भी वस्तु का निश्चायक नहीं हो सकता ।। ७ ।।
८वों कारिका में भी उक्त प्रकार के ही अन्य शेष का प्रदर्शन किया गया है -
मूलम्-संसार्यपि न संसारी मुक्तोऽपि न स एव हि ।
तरतद्पभावेन सर्वमेवाऽव्ययस्थितम् ॥ ८ ॥ संसायपि संसायव न, एकान्तप्रसङ्गान् । मुफ्तोऽपि हिनिश्वितम', 'न स एव'= सुक्न एव न, तत एव । एवं कब समेव सत्वम् तस्तद्रूपभावेन तदतत्स्वभावत्वेन, अव्यक्षस्थितम् अनिधितामिति ॥ ८ ॥