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माटोका एवं हिची विषम ]
[संसारी-अर्ससारी मुक्त-अमुक्त व्यवस्था का अभाव ] अनेकासवादी मैन के मत में संसारी जीव भी केवल संसारी ही नहीं हैयोंकि उसे बिल संसारी मामले पर एकान्तवाव की प्रालि होने से वास की प्रकाशामकता का व्याघात होगा। मतः संसारी को असंसारी (मुक्त) भी मानना होगा। एवं मुक्त जीव को भी अनेकान्तण्याचात भय से केवल मुक्त ही नहीं माना जाता किन्तु उसे प्रमुक्त (संसारी) मी मानना होगा । इस प्रकार अमेकालवाव में कोई भी वस्तु सरस्वभाष पथवा प्रतरत्वभावरूप में मिश्चित नहीं हो सकती ॥६
कारिका में सिमान्ती अर्थात अनेकान्तवादी की भोर से उक्त भापसिओं का परिहार किया गया है
अत्र सिद्धान्तवातामाइमृलः.... पावसानपद: माधकः ।
स्वर्णान पान्य एवेति न विरूई मिस्त्रियम् ॥६॥ से-जैनाः आर्यदुत मुकटोरपादो न घटानाशधर्मफ:-धर्मपदस्य स्वभावार्थत्वाव । नव्यत्ययाच न घटनाशाऽस्वभाव इत्यर्थः, तुल्यहेतुप्रभवयोहयोस्तयोरेकस्वभाषस्वात् । न च स्वर्णात् अन्धयिनः स्वाधारभुतान् अन्य एन । इनि हेतोः मिथस्त्रयम्-उत्पादादिकम् न विरुद्धम् , पकौकदा प्रमीयमाणत्वादिनि ||
[स्यावाद में अपादित दूपों का निवारण ] "घटानाशयमक' शम्ब में धर्म पर का स्वभाव पर्थ और नाश पद के पूर्व में पहित मपर को नाशव के उत्सर और धर्मपद के पूर्व सासति है, अतः घटानाशधर्म का अर्थ है घटनाममस्यभावक, अर्थात् घटमाश जिस का अस्वभाष है । तात्पर्य यह है कि जन विद्वानों के अनुप्तार मुकुट का उत्पाव यानो मुकुट रूप में सुवर्ण का उत्पाद पह घबनाशापभासक मही है किन्तु पदमाशस्थभाषक है और परमुकुटादि विभिन्न पत्रों में अन्वधो सपने प्राधारभूत सुमणं से प्रत्य भी नहीं है। सप्रकार मुकुटोत्पार घटनाशस्वभावक है और सुवर्ण से भिन्न है। इसलिये सुवर्णरूप एक प्रम में एककाल में घटारमना घिनाना, मुघटान्मना उत्पाद और सुवर्णागना प्रौष्य की प्रमा होने से उन तीनों को एक काल में एक वस्तु में विस्त नहीं कहा जा सकता ।। ९॥
१०वीं करिका में पूर्णकारिपार के प्रथ का समर्थन किया गया हैएतदेव समर्थयभाह-- मूलम्-न घोत्पादायी न स्तो प्रीव्ययसनिया गतः ।
मास्तिग्वे तु तयोभाव्यं तवमोऽस्तीति न प्रमा ॥१०॥ न योत्पादन्ययौ न स्तन विद्यते, कल्पितत्यादिति वाच्यम्, कुन: ? इत्याहधौग्यवत् तषिया-स्त्रबुद्ध्या गतेः परिच्छेदात् । तथापि नास्तित्व एव तयोरुपगम्यमाने