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________________ [ शास्त्रमा १० धौम्यं तस्वतः परमार्थतः अस्तीति न प्रमा उत्पाद-व्ययप्रतीतितुल्योगक्षेमत्वाद् धौव्यधियः । —— एतेन द्रव्यादिकमतं निराकृतम् ॥ १० ॥ ५८ [ एकान्त द्रव्यास्तिक मत का निराकरण | अय्यरतिक प्रष्पमात्र का ही आश्य पारमार्थिक है' ऐसा मानन वाले का यह कथन है कि 'उत्पाद और व्यय कल्पित है अत: उनका अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व केवल अकल्पित होने से श्रीव्य का ही है। किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जैसे प्राण्यविषयक बुद्धि से की सिद्धि होती है उसीप्रकार उत्पश्वव्यय की बुद्धि की सिद्धि से उत्पाव्यय की सिद्धि भी आवश्यक है। और यदि बुद्धि और उत्पाठावि बुद्धि में साम्य होने पर भी भव्य का अस्तित्व और उत्पादध्यय का मास्तिर व माना जायगा तो प्रोथ्य भी परमार्थतः सिद्ध न हो सकेगा । अर्थात् यदि उपाध्यय को प्रतोति को अग्रमा कह कर में कल्पित माने आयेंगे तो प्रो की प्रतीति को भी अत्रमा कह कर ष्य को भी कल्पित कहा जा सकता है। क्योंकि उत्पाद-व्यय को प्रतोति और प्रौष्य प्रतीति का योगक्षेम मुख्य है। अतः उनमें किसी एक को प्रमा और अन्य को अप्रमा महीं कहा जा सकता ||१०|| ११वीं कारिका में एकान्त पर्यायास्तिक मत का निराकरण किया गया हैपर्यायास्तिकमतं निराचिकीर्षवाद मूलम् - न नास्ति श्रीव्यमप्येवमचिगानेन तद्गतेः । अस्याश्च भ्रान्तायां न जगस्यभ्रान्सता गतिः ॥ ११ ॥ एयम् - उत्पाद–व्ययवत् श्रव्यमपि नास्तीति न अविगानेन = अवाधितत्वेन तद्गतेोन्य परिच्छेदात् । अस्याञ्च धाच्यगतेव भ्रान्सतायामुच्यमानायाम् जगति - लोक्ये अनन्तनागतिः = अन्तताप्रकारः नास्ति कश्चित् । [ एकान्त पर्यायास्तिक मत का निराकरण ] पर्यायास्तिकवादी का यह कहना है कि "जैसे उत्पाद और व्यय को प्रतोति श्रप्रभा होती है। अतः उत्पवध्यम तात्त्विक नहीं होता, उसी प्रकार भोग्य की प्रतीति भी अप्रमा है मतः श्रौष्य का भी अस्तित्व पारमार्थिक नहीं होता" किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि श्रीष्य की बुद्धि वाषित है, अतएव उसे श्रप्रभा नहीं कहा जा सकता । यदि बाधित होने पर भी उसे प्रत्रमा कहा जायगा at intern किसी भी वस्तु की वृद्धि को अनत कहने के लिये कोई युक्ति न मिलेगी। अस वस्तुमान का ज्ञान श्रप्रमा हो जाने से किसी भी वस्तु की सिद्धि न हो सकेगी। ननु यद्येवं द्रव्यास्कि - पर्यायास्तिकयोर्द्वयोरपि प्रत्येकं मिथ्यात्वं तदा सिकतासमुदाये तैलयत् तत्समुदायेऽपि सम्यक्त्वाभावा कथं " प्रमाण नयैरधिगमः " [० सू० १-६ ] १ इति चेत् ? सत्यम्, न क्षत्र दलप्रचयलक्षणः समुदाय उच्यते, पर्यायस्यादत्वात इतरेतरविपापरित्यागात्तीनां ज्ञानानां समुदाया भाचान् काचित् क्रमिकतत्समुदायस्याऽध्यापक
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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