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का० १२-१३ में उत्पादादि तीन में कैसे अविरोष है-इसका उपपादन किया गया है। यहा ध्यास्या में स्थुलाकार प्रतिभास से अवयवी का समर्थन करके मौसमत का निराकरण दिखाया है। सदूपरांत उत्पाद न मानने वाले मांख्य के संस्कार्यवाद की मीमांसा की गयी है । सपरांत कार्यकारण के तथा मन पव-अवयवी के एकान्त भेद मानने वाले वैशेषिकों का निराकरण विशेषत: अवयवी के विषय में उद्योतकर और पांकरस्वामी के मत का विस्तार से निराकरण किया गया है ( पृ०७४ से 2 )।
- अतवादी कार्यकारणभाव शून्य मद्धत तस्द को हो मानता है। सांगण्यावी सिर्फ प्रधानात तस्व की मानता है उसका निरसन कर के व्याम्माकार ने पाक्यातवादी मत हरि के मत का विस्तार से निरूपण और मीमांसा को (१.८६ से ९६ ) प्रस्तुत किया है। इसमें जैन मतानुसार वैखरी बादि वाणी का स्वरूप (१०९५) विशेषत: मननीय है।
का. १४ में निमित्त भेद से उत्पादित्रय की उपपत्ति को विमा पर प्रथयार ने का. १५ सावन
काय 41 मियामायाकार ने प्रसंगत: ( पृ० ११ से १२३ में ) जेनवर्शन के नि:क्षेप तस्व की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की है। यहो निःक्षेपमीमांसा व्यायाकार ने प्रयाहस्य में तथा जमतभाषा में भी शामिक की है।
पहले जो पूर्वपक्षी के उत्पाद के निमित्त होने वाले शोकादि को पासमामूलक कहा था, उसके प्रतिकार में ( का. १८-१९) कहा है कि बासना भी निईतुक नहीं हो सकसी श्योंकि मिहैतुफ भाव या तो शाश्वत हो मैटेगा या सर्वधा न होगा, सधा एकरभाष बस्तु से विचित्र वासना की उत्पत्ति भी संगत है। इस प्रसंग में कपास्याकार ने अनेकाम्तजयपताका अन्य की दो कारिका (पृ. ११४ में ) उद्धृत करके अन्यकारोक्ति का समर्थन किया है। पूर्वपक्षी ने जो कहा था कि बनेकान्तमत में प्रमाण भी अप्रमाण होने से किसी वस्तु का निश्चय दुमक्य हो पायेगा उसके प्रतिकार में का०२० में कहा है कि अमित्राय का मूल कान्त ही है और निश्चय की उपपति बनेकान्त के अवलम्ब से ही की जा सकती है। जैनमत में मानस्ल पोर बमानस्व में कचिद् अविरोध ही है। व्याख्याकार ने यहां संशय के विषय में इदयंगम ऊहापोह किया है। उपरोत, विरोष तस्व की भी समीक्षा करको प्रतेकाम्तमत में उसका परिहार दिखाया है ( .११७ से १२३)। तपा स्यावाद में एषकार के प्रयोग की सार्थकता कैसे है और एकान्तबाद मैं उसकी कैसे अनुपपत्ति है इसके प्रतिपादन में का० २१ में कहा है कि प्रत्यक्षादि स्वमानत्व रूप से ही प्राण है किंतु बनुमानप्रमाणस्वरूप से प्रमाण नहीं है। यहाँ विघोषण विशेष्य-क्रिया संगत तीन प्रकार के एक्कार के सर्पको संबर मीमांसा व्याख्या में प्रस्तुत है ( १. १२४ से १३२)।मस्तर व्यायाकार ने विस्तार में यह दिखाया है कि-'प्रत्यक्ष मानमेव' या प्रत्यक्ष में मानस्वायोग और मानका सपा यवनोद एकातिवाद में शक्य ही नहीं है ( १० १३२ से १४.)।
का० २२ में शहा गया है कि स्वसत्त्व और परासत में दोनों भिन्ननिमित्तयाक होने से सवषा एक नहीं है। ज्यास्याकार ने यहां आपेक्षिक अणु-महात् परिमाण का दृष्टान्त दिखाया है। इस विषय में मीमांसक और नैयायिकों के परिमाणवाय की विस्तृत समालोचना की गयी है r. १४१ से १४७ ] का. २३ में, वस्तु में परासत्त्व कल्पित होने को शंका का निरमन किया गया है। ध्यामयाकार मे यहा नेयायिक मस्त्यिात सत्ता जाति का निराकरण मारके उसावाविधययोग को ही सस्वरूप में स्थापित किया है और उसमें परपक्षीयों की विपतिपतियों का भी निरसन कर दिया है।