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________________ स्वकी अपेमा से सश्व मौर पर की अपेक्षा से सत्व दो मंग के प्रसंग से व्याख्याकार ने विस्तार से [पृ. १५२ से १७७ ] अनशमप्रसिद्ध मसभंगी का निरूपण किया है। इसमें मुख्यरूप से तृतीय अवतव्य भंग की उपपत्ति मह कह कर दिखायी है कि सत्व-अमत्व दोनों के एक साप प्रतिपादन के लिये न कोई स्वतन्त्र पद है और न कोई सामासिक पब है. अतः वस्तु अबक्तव्य कही जायेगी। तपाईस सोलह प्रकार से तृतीय भंग का उपपादन किया है । ससनंगी के दो प्रकार सकलादेशविकलादेशका और उसके अंगभूत कालादिष्टक का निरूपण मननीय है [५. १७३ से १७६)। यहाँ विशेष शासश्य के रूप में कहा गया है कि स्यात् पद के बिना सिर्फ एवकार के ही प्रयोगवाले मंग दुनय है, स्यात् पद सहित प्रयोग करने पर वह सुनय कहा जायेगा और 'स्यास्-पग पोनों पदों के षिमा ही प्रयोग करने पर वह सुनय तो हो सकता है कितु उससे कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता । २४ श्री कारिका में प्रोक्त चर्चा के फलिताथरूप में यह कहा है कि प्रमाण को सम्यग व्यवस्था अनेकान्तबाद में ही मुघटित ह वासादीको प्रस्तु; या महो सका। ज्याश्याकार ने यहाँ, एकान्त की सिद्धि न प्रत्यक्ष से की जा सकती है न अनुमान से-इस घर्चा के अन्तप्ति मनमिश्रावि विद्वानों की मान्यता का प्रत्याख्यान कर दिखाया है। बनेकान्तमत में संसारी मसंसारी भी होगा इत्यादिजो दोष प्रकट किये गये थे उनके प्रतिकार का कारिका से प्रारम्म शिषा गया और यहाँ भी कैसे बनेकान्तमत की उपपत्ति होती है पर पुष्ट किया। कारिका २० से ३० तक बाल-युवान अवस्था के विषय में लोकानुभव के बल पर बनेकान्त का समर्थन किया गया है। इस प्रसंग में व्याख्या में नैयायिक को इस माम्यता का-शवादि मामा पारीर की ही होती है भारमा की नहीं-तया अवस्थामद होने पर भी शरीर एक ही होता हैइसका निरसन किया है (पृ.१९२-९३) । सदुपरांत 'जोयनिकाय पृषी अवि छ ही है" इत्यादि मान्यता में सम्यक्त्व हो सकता है या नहीं, होगा तो द्रव्यसम्यास्थ मा भावसभ्यक्रव-इस की बर्चा मनमीप है। तपा जीब-अजीब-नोजीम-मोऽणीय पदों की अर्थमीमांसा के प्रारम्भ में यह विशेष स्पष्टता की गयी कि जीव-अजीम-नौजीव तीन राशि को माननेवाले राशिक मत एकासकामबसम्बन किये जाने से ही पूर्वाचार्यों ने अन्य नय से उसका खण्डन किया है, वस्तुत: अनेकाम्तमत में मयभेद से राधिक मत भी मान्य ही है।। का० ३१ से ३६) में कहा कि द्रष्य और पर्याय पद का वाध्याय नामश: प्रत्यय और सय किया भेवाभेद सम्बन्ध से ये दोनों अन्योन्यग्यास ही है। व्याख्याकार यह कहते है कि वास्तव में गुण भी पर्यायाम्सगत ही है, पर्याय से भित्र कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । साक्षिरूप में यही सम्मति प्रकरण की गाथाएं उद्धृत की गयी है । व्याख्याकार ने विस्तार से भेदाभेद की अन्योन्य यात कसे है इसका भनेक पांकाओं का निरकरण करते हुए प्रतिपादन किया है [ पृ. २०७ से ११६] । उक्त रीति से विस्तार से अनेकान्तकी निर्वाघ सिद्धि कर दिखाने के बाद पूर्वपक्षीप्रोक्त विरीचादि दोष के निराकरण का और एकान्तबाद में हो विरोधावि दोषों का प्रवेश दिलाने के लिये का० ३४ से उपक्रम किया गया है । का० १८और उसकी ग्यारूपा में अनवस्थादि पांच दोषों का निरसम किया है। का. ३१.४१ में मन्थकार कहते हैं कि भेवरहित अभेद और अभिवरहित भव ही अब स्वतन्त्ररूप से नहीं है सब 'जिस भाकार से भेद है उस आकार से केवल भेव ही है या भेदा. भेद उभय है?' स्यादि विकल्प बाल निरवकाश है । प्रमाग से प्रत्येक बस्तु भेदाभेदात्मक ही सिक
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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