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स्पा० ६० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
अत्रादि-उत्पादः निधनं विनाशः, तदभावाट् 'अनादिनिधनम्' प्रकृतेर विकृतैकरूपत्वात् । 'अक्षरमि'त्यकाराद्यचरस्य निमित्ताने
मोग भिधेयरूपः । प्रक्रियेति भेदानामेए संकीर्तनम् | 'ब्रह्म' इति विशुद्धस्वनामकीर्तनम् | शब्दहोय खल्वैकमनवच्छिम् तचावच्छिन्नेषु स्वविकारेष्वनुस्यूतमवभासते सर्वस्यैष प्रत्ययस्य शब्दानुविद्धत्वा तदनुवेधपरित्यागे च प्रकाशरूपताया एवाऽभावप्रसङ्गात् । तदुक्तम्
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"न सोऽस्ति प्रत्ययो लोकं यः शब्दानुगमाते । अनुविद्धमिव ज्ञानं स शब्देन वर्तते ॥ वासरूपता येद् व्युत्क्रामेदवबोधरूप शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥ " [ वाक्य ० १२४|१२५ ]
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[ शब्दावाद भर्तृहरि का मत निरूपण ]
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उपकरणशास्त्र में दाद्वैत मत की स्थापना की गई है। किन्तु वह भी युक्तिमत नहीं है। जैसेदेखि स्त्र का मतष्य यह है कि अनवि-निषम-उत्पतिविरहित हो जगत् का पारमार्थिकस्वरूप है। क्योंकि वह जगत् को प्रकृति यानी उपादान कारण है जो जिसकर उपावान कारण होता है वही उसका पारमार्थिक स्वरूप होता है, जैसे घट-शरावादि का उपादान कारण मृतिका ही उनका पारमार्थिकस्वरूप है। जैसा कि दीप में भर्तृहरि की अनादिनिधन, कारिका में कहा गया है- कारिका का अर्थ: अनादि निधन राम्व में 'आदि' शब्द का अर्थ है उत्पत्ति और निधन का अर्थ है विनाषा और नन् पत्र का अर्थ है उनका अभाव। इस प्रकार अनादि मिथन का अर्थ है- उत्पत्ति विनाशरहित इस विशेषण से जगत् के प्रकृतिभूता के सम्बन्ध में यह सूचना दी गई है कि यह एकमात्र अधिकृत स्वरूप है। अभाद वह किसी अन्य का विकार कार्य नहीं है 'अक्षर' शब्द से यह कहा गया है कि वह प्रकारावि वर्णों का निर्मित है। अकारादि वर्णों को 'अक्षर = विध्युत न होनेवाला' कहकर उसमें शब्दग्रह्यरूप अक्षरप्रकृति का अमेव सूचित किया गया है। इससे यह बताया गया है कि शब्द का 'अभिधान' = वरत्मिक विवस होता है। 'अर्थभाव' शथ्य से यह बताया गया है कि शव का अभिधेयाश्मक-अर्थात्मक विष होता है। 'मक्रिय' शब्द से सभ्य यज्ञ से प्रातमेवालि भेदों-विशेयों की सूचना दी गई है ' शब्द से उसके विशुद्धताम का निर्देश किया गया है। इस प्रकार कारिका का यह अर्थ फलित होता है कि शन्य हो पारमार्थिक पदार्थ है जो स्वयं उत्पत्तिविनाशरहित है और 'ब्रह्म' इस नाम से व्यवहृत होता है, तथा गाय और अर्थरूप में उसका विवर्तन परिणमत होता है । उसी से चित्र्यपूर्ण जग की रचना होती है। इस कारिका से यह स्पष्ट विदित होता है कि शब्दही एक अनवक्रि यान अर्थर्यमत तत्व है। वही अपने अवधि = परिमितविकारों में अनुस्यूत होकर अति होता है। सभी ज्ञान से अनुविद्ध होता है। ज्ञान में शब्द के अनुवेध का निबंध कर देने पर शान की प्रकाशरूपता ही अनुप हो जाती है जैसा कि भर्तृहरि की न सोऽस्ति वापसा चेत् ०. · दो कारिकाओं में स्पष्ट कहा गया है। पहली कारिका का अर्थ यह है- लोक में ऐसा कोई ज्ञान नहीं होता जिसमें शब्द का अनुगम न हो, अर्थात् जिसमें काम हो । सभी ज्ञान शब्द से अनुविद्ध हो प्रतीत होता है।
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