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________________ [सामा. . .१३ मधि "साभाषको उपसर्वन और उसके प्राश्रम को प्रधान मानकर दोनों में प्राङ्गी माय की कल्पना की बाय"-तो यह मी ठीक नहीं है क्योंकि उस कल्पना में मौत की प्रस लिमनिवार्य है। क्योंकि मानोभावत के किना सम्भव नही हो सकता। पचास पक्ष में मीस की प्रसक्ति अपरिहार्प हैयोंकि इस पक्ष में पढ़ताम्ब का "सभिन्न तसरश कोई वस्तु ऐसा अर्थ होगा। और यहांत को प्रामाणिक मानने पर ही सम्भव है। [अद्वैत दैत से भिन्न होगा या अभिन्न १) इसके अतिरिक्त यह श्रीज्ञातव्य है कि अत यदि त से भिन्न होगा तो वह पररूपरमात और स्वष्टपास्यावृत होमे से द्विरुप होगा। इस प्रकार त-प्रसक्ति अनिवार्य है। यदि अनुत इत से अभिन्न होगा तो इतकी सत्ता अवश्य प्रसतहोगी। दसरीवाल पर भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मद्वैत में प्रमाण आदि का सदाको लमाण दिन है। माना होने में सबाव से मुक्ति नहीं मिल सकती। यदि प्रमाणावि का अभाव होगा लो त के समान प्रदत की भी सिशिन हो सकने से सर्वश्रुग्यता को मापत्ति शोगी। वसीप्रकार यदि त तरको प्रयात्मक माना जायगा तो उसमें रूपाविसमीपवाओं के प्रपने आश्रम से प्रभिन्न होने के कारण उनमें परस्परमेव के अभाव की प्रसक्ति होगी। यवि मह कहा जाम कि-एक हो तस्य वा स्वा मावि इन्द्रियों के सम्बन्ध से रूप-स्पादि विलक्षण प्रसोति का जमक होता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चक्ष मादि का प्रध्यात्मक अवस के साथ सस्मिना सम्बन्ध मानने पर लवंका समान ही प्रतीति की प्रसक्ति होगी। यदि रूपावि की उस से अतिरिक्त मानकर यक्ष आदि के सत्मिना सम्बन्थ का अभाव बताकर उक्त प्रापत्ति का परिहार किया जायगा तो अवत का व्याघात होगा। [लोख्य का प्रधानाद्वनवाद अमंगत ] सोल्यों ने प्रामाईत सिद्धान्त का स्वीकार किया है किन्तु महतस्व-अहंकारावि विकारों को स्वीकार करने पर यह मास मो युक्तिसनत नहीं हो पाता क्योंकि विकार और विकारी में अत्यम्तमेद मामले पर हमम पर पकारी प्रधान की अढत सत्ता, यह व्यवहार नहीं हो सकता। क्योंकि शिकारी सम्म में 'चन्' प्रत्यय ऐसे सम्बन्ध का उमाश है को भेवनिमत होता है । यदि विकार में विकारों का भवाभेव माना जायगा, तो अनेकारतबाद की प्रसक्ति होगी। मवि भेव माना जामगा, तो हूंत को आपत्ति होगी। इस प्रयानवेसवादको सांस्यमत की वर्धा में निरस्त किया जा चुका है। अतः इस प्रमझ में इसके बारे में कुछ अधिक कहना अनावश्यक है। प्रहातपाय का भी निरास परिघ्र ही वेदान्समस को पर्धा के प्रसङ्ग में किया जायगा अतः यहाँ उस विषय में पृथा कहने को आवश्यकता नहीं है। शमाहतमतमपि न युक्तम् , एवं हिं तद्-अनादिनिधनं शब्दन मेव जगनरूतत्त्वम् , सत्प्रकृतित्वात् , पटशराबादीनामिव मृत । नदु मा हरिणा- [ चाक्यपदीय- ] "अनादि-निधनं नम शब्दतचं पदक्षरम् । वियनतर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यता || १॥" इति ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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