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________________ SE [ शास्त्रवार्ता स्त० ७ को १३ ० दूसरी कारिका का अर्थ यह है कि ज्ञान की वायूपता शाश्वत है। यदि उसे अस्वीकार कर दिया जायगा तो प्रकाश ज्ञान की प्रकाशरूपता ही न होगी, क्योंकि ज्ञान की बानूपता ही उसे प्रत्यवमर्शात्मक अर्थात् विषयग्राहक बनाती है । ] सा चेयं वाकू-त्रिविधा वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती च । तत्र येयं स्थान-करण - प्रयत्नक्रमव्यज्यमानाऽकारादिवर्ण समुदायात्मिका वाक् सा 'वैखरी' इत्युच्यते । तदुक्तम् - [वाक्य • “स्थानेषु विधृते वाय कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी बाकू प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥१॥" अस्यार्थः-स्थानेषु ताल्वादिस्थानेषु, वायां = प्राज्ञसंज्ञे विधूते - अभिघातार्थ निरुद्धे सति, 'कृतवर्णपरिग्रहेति हेतुगर्भविशेषणम् ततः ककारादिवर्णपरिणामाद् 'बैखरी' विशिष्टायां रावस्थाय स्पष्टरूपाय भवा वैखरीतिं निरुक्तेः, वाक्, प्रयोक्तृणां संबन्धिनी तेर्पा स्थानेपु वा, तस्याश्व प्राणवृत्तिरेव निबन्धनम्, तत्रैव निबद्धा सा तन्मयत्वादिति । 7 [ त्रिविध वाणी में वैखरी वाणी का स्वरूप ] प्रत्येक ज्ञान में अनुविद्ध होनेवाली वाकू तीन प्रकार की होती है। वैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती। जो व स्थान-करण और प्रयत्न द्वारा अकारादि वर्णों के समुदायरूप में प्रभिव्यक्त होती है उसे वैखरी' बा कहा जाता है। इस प्रकार अर्थघोषक वाक्यों का निर्वाहक श्रोत्रग्राह्य अकाशवर्णसमुदाय हो बैखरी वाक् है। जैसा कि भर्तृहरि की 'स्यानेषु विधृते' इस कारिका में कहा गया है | कारिका का प्रर्थः- तालु प्रावि स्थानों में प्राणात्मक वायु का विधारण यानी अभिघात के लिये निशेध करने पर वाकू ककारादि वर्णों के स्वरूप का परिग्रह करती है। इसीलिये उसे बेलरी कहा जाता है। क्योंकि वैखरी शब्द का निर्वचन है 'बिखरे भवा वैखरी' जिसका अर्थ है-बिखर में= विशिष्ट सरावस्था में अर्थात् स्पष्ट अवस्था में होनेवाली ( वाणी ) शब्दप्रयोक्ता पुरुषों की यह वाक् अथवा प्रयोक्ता पुरुषों के ताल्वादिस्थानों से सम्बद्ध वाक् का मूल प्राणात्मक वायु को प्रवृत्ति हो होती है। अर्थात बाकू का आविर्भाव प्राणवायु पर निर्भर होता है। क्योंकि बाक् प्राणमय होती है । या पुनरन्तः संकल्प्यमाना क्रमवती श्रोत्रप्रावर्णरूपाऽभिव्यक्तिरहिता वाकू सा मध्यमेत्युच्यते । तदुक्तम्- [ शक्य० ] "केवलं युद्ध पाढाना क्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥" अस्यार्थः-स्थूलां प्राणवृत्तिमतिक्रम्य हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य क्रमरूपमनुपततीत्येवंशीला, केवलं बुद्धिरेवोपादानं हेतुर्यस्याः सा. प्रवर्तते संकल्पविकल्पादिधारानुबन्धिनी भवति मध्यमा वाक् । वैखरी-पश्यन्त्योर्मध्ये भावाद् मध्यमेति संज्ञा । मनोभूमाववस्थानमस्याः । - [ मध्यमा वाणी का स्वरूप ] जो वश् मन के भीतर संकल्प्यमान होती है, एवं क्रमिक होती है एवं श्रोत्र से ग्राह्य अर्थात्व प्रणयोग्य वर्ण रूप होती है किन्तु अनभिव्यक्त रहती है उसे मध्यमा चाकू कहा जाता है। जैसा कि- मतृहरि ने 'केवलं बद्ध्युपावामा ०' कारिका में कहा है जिस वाक् का केवल बुद्धि हो उपादान है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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