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________________ [ मास्ववा० स्त०७ लो० २१ अपर्याप्त है वह विशिष्ट में पर्याप्त नहीं होता। मत एम अनुमानस्वविशिष्ठमानस्वस्व में पर्याप्त अत्यन्ताभावीय प्रतियोगिताबच्छेवकता भामस्वत्व में भी पर्याप्त होगी एवं अनुमानस्वविशिष्ट मानव में (पर्याप्तमेवीयप्रतियोगितामधेयकता मानव में ही पर्याप्त होगी। इसलिये उक्त प्रतीति से मानस्वस्वपर्याप्साबमाछवकताक प्रतियोगिताकात्यन्ताभाष एवं मानत्वपर्याप्तावस्यकताकप्रतियोगिताकमेव भी सिट है। अत एष उसका प्यवसछेव पास्य नहीं हो सकता । [अतिरिक्तपर्याप्ति मानने में अनवस्था ] यदि इसके उसर में यह कहा जाय कि-"पर्याप्ति स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप नहीं है किन्तु अतिरिक्त है । अतः विशिष्टानिष्ठ पर्याप्ति का शुद्ध हिटरव भावायक नहीं हो सकता, क्योंकि विशिपटमिष्ठपति यति बिशिष्टारमक होती तो विशिष्ट -ग्रड में ऐक्य होने से वह शुद्धात्मकमी होतो! सब उसका शुद्धनिष्ठाप आवश्यक होता। किन्तु सब विशिष्ट निष्ठपरित विशिष्ट से भिन्न है तो उसका शुनिष्ठ होना आवश्यक महीं है। अतः प्रत्यक्ष में विशिष्टमामस्वत्वपर्याप्तावस्थेवकसाक प्रतियोगिता अत्यस्ताभाव एवं विशिष्मानस्वनिष्ठावकताप्रतियोगितामाम्योत्याभाव के सिव होने पर भी शुद्धमानत्वस्वमिष्ठापच्छेवकताकप्रतियोगिताकास्यन्ताभाव एवं शुबमानस्यनिष्ठावा;षकताकप्रतियोगिताक पम्पोन्यामाव सिद्ध नहीं हो सकता।"-तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि पारित को स्वरूप सम्बन्ध वियोष न मानकर अतिरिक्त मानने पर अनबस्था होगी। कारण पर्याप्ति यति सम्बन्धी से अतिरित होगी तो इसके साथ पर्याप्ति के सम्मथ की कल्पना फरमो होगी। और यह सम्बन्ध यवि सम्बन्धीस्वरूप होगा तो पर्याप्तिको लम्वधीस्वरूप मानने पर नो बोष होता है उसका परिहार हो सकेगा। यदि वह सम्पग्य भी सम्बन्धी से भिन्न होगा तो उसके भी सम्बन्धान्तर को कल्पना करनी होगी । फिर उस सम्बन्ध के विषय में भी उसी प्रकार के प्रश्न और उत्तर का क्रम चलेगाफलतः पर्याप्ति को स्वरूपसम्बम्पविशेषरूप न माम कर सम्बन्धी से भिन्न मानने पर प्रनवस्था होगी। [विशेषरूप से सामान्याभाव का प्रतिक्षेप-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय कि "अनुमानस्वेन म मानत्मस प्रतीति को तावात्म्पसम्बन्धावश्विन प्रनुमानत्वनिष्ठ अब साहेवकप्ताकप्रतियोगिताक अमार विषयक मामने पर ही बससे विशेषरूप से सामान्याभाव सिट हो सकता है किन्तु उसमें गौरव है क्योंकि उस प्रभाव की प्रतियोगितात्रयेवक कोटि में अनुमामश्य और अनुमानयत्व बोनों का प्रवेश होता है अत: जहाँ अनुमानस्व को सादाराम्यसम्बन्ध से अभावप्रतियोगितावमाछेदकला के अभ्युपगम का प्रसङ्ग होगा वहां स्वरूपसम्बन्ध मे अनुमामस्वत्व को ही प्रतियोगितावच्छेदक मानना उचित होगा । यदि अनुमानत्वेन न मानवम्' इस प्रतीति को भनुमानश्पनिारस्वरूपसम्बधाबसिनावाटेवरताक प्रतियोगिताक अभावविषयक माना जाधमा तो अनुमानश्व के स्वरूपसम्बन्ध से मानत्वनिष्ठ महोरे से यह व्यभिकरण धर्मावरिछन प्रभाव होगा। मतः स प्रतीति से विशेषरूप से मामान्माभाव की सिद्धि बताते हुये मानस्वस्थपर्याप्तावसझेवताकप्रतियोगिताक अभाष को भी सिद्ध कह कर उसकी व्यवधता का निराकरण उचित नहीं है।" [ अनुमान में 'अनुमानवेन न मानत्वं' इस प्रयोग की आपति-उत्तरपक्ष ] सो मह ठीक नहीं है क्योंकि मुखधर्म के प्रभावप्रतियोगिताबकवाय पक्ष में यह प्रतीति भी अनुमानस्वनिष्ठ तादाम्यसम्बन्धाय चिन्नावरवक्ताकप्रतियोगिताकप्रभाव विषयक हो सकती है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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