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________________ १६६ स्या... रोका एवं हिम्मी विवेचन ] वाच्यः । यो घटः स उपयोग इत्युक्तावुपयोगस्यार्थत्वप्रसक्तरुपयोगाभावे घटस्याप्यभाव इति कथं नावाच्यः १ । तदिदमुक्तम्-[ सम्मति-३६ ] * "अत्यंतरभूएहि य णियएहि अ दोहि समयमाइट। अयणविसेसाईयं दव्यमवत्तव्ययं पडइ ॥१॥" इति । [१५-मतुयर्थादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन] अथवा तृतीयभा की उपपत्ति इसप्रकार हो सकती है कि रूपाविमान् घटः' इस व्यवहार के अनुसार रूपादि घट का पर रूप है और मतुप प्रत्ययार्थ-रूपादि का सम्बन्धी घट का स्वरूप है। इसप्रकार घट रूपाचारमा पर रूप से प्रसव और रूपाविसम्बन्ध्यात्मक स्ल रूप से सब होता है। इन बोनों रूपों से युगपद् विवक्षा होने पर एकान्तवाद में घट सर्वथा प्रवाच्य हो जाता है। क्योंकि रूपादिस्वरूप एकाकारावमास का प्रत्यय अर्थात् निमिसमृप्त विषय जो 'रूपाद्यात्मक' है उस के अभाव में अन्य मनुषप्रत्यवार्य सियसम्बन्धी पियरुप में पति नहीं होती। इस प्रकार विशेषणभूत रूपादि के बिना विशेष्य का भी अभाव होने से 'स्पादिमान घट: यह व्यवहार सम्भव न होने के कारण रूपादि से भिन्न 'रूपादिसम्बन्धी घट का अभाव हो जाने से घट सर्वथा अवाच्य हो जाता है । एवं एकाकार प्रतिमास से मह्यमाण जो 'रूपसंबन्धी स्वरूप विषय उसके प्रभाव में विशेषणमूत 'रूपादि' का भी प्रतिभास नहीं होता । अतः विशेष्य रूपादि का विशेषणरूप में अभाव होने से भी विशिष्टात्मक घटादि का अभाव होने से घट सर्वथा अपाच्य हो जाता है। किन्तु अनेकान्तवाद में रूपादि और रूपाविसम्बन्धी में कश्चिद् भेदामेव होने से घटादि की कश्चिद् अवक्तव्यता होती है। [१६-बाह्यादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन ] अथवा तृतीयभंग का निरूपण एक और अन्यप्रकार से किया जा सकता है। जैसे यह कहा जा सकता है कि बाह्यघट-घट का पररूप है और उपयोग-ज्ञानात्मक आन्तरघट घट का स्वरूप है। इन दोनों रूपों से घट की युगपत् विवक्षा करने पर एकान्तबाव में घट सर्वथा अवक्तव्य होता है। जसे 'जो उपयोग है वह घट है ऐसा कहने पर उपयोगमात्र ही घट है इस प्रकार का बोध होने से समी उपयोग में घटत्व को प्रसक्ति होती है अतः घट का कोई प्रतिनियत स्वरूप न होने से प्रतिनियतस्वरूपात्मक घट का अभाव होने से घट अपाच्य हो जाता है । तथा 'जो घट है वह उपयोग है' यह कहने पर उपयोग में अर्थश्व की अर्थात बाह्यार्थत्य को प्रसक्ति होने से उपयोग का अभाव हो जाने के कारण उपयोगात्मक घट का अभाव हो जाता है । इसलिये घट सर्वथा अवाश्य क्यों नहीं होगा? अनेकान्तवाद में घट के कश्चिद बाह्य और उपयोग उभयात्मक होने से घट में कश्चिद प्रवाच्यता होगी। उक्त रीति से प्रथम और द्वितीय भंगों के बाद तृतीयभत की उपपत्ति के सम्बन्ध में विचार करने पर जो निष्कर्ष फलित होता है वह सम्मतिसूत्र गाथा ३६ में इस प्रकार कहा गया है-"अर्ष और अर्थान्तर अर्थात् स्व रूप और पर रूप इन दो रूपों से युगपद प्रादिष्ट - विवक्षित होने पर द्रव्य शब्दातीत हो जाने से प्रवक्तव्य हो जाता है ।" अर्थान्तरभूतैः निजकैश्च द्वाम्यां समकमादिष्टम् । वचनविशेषातीतं द्रव्यमवक्तव्यता पतति ।।१।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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