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[ शास्त्रबा० स्त०७ ग्लो० २३
यदा च देशोऽस्तित्वेऽवक्तव्यत्वानुविद्धस्वभाव आदिश्यते, अपरश्च देशोऽस्तित्वनास्तिस्वाभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यत्वस्वभावे, तदा पश्चमभङ्गप्रवृत्तिः, प्रथमतृतीयकेवलभङ्गव्युदासोऽत्र विवक्षाभेदकृतो द्रष्टव्यः, प्रथम-सृतीययोः परस्परानुपरक्तयोः प्रतिपायेनाधिगन्तुमिष्टत्वात् , प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वात् , अत्र तु तद्विपर्ययाद , अनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाद्यानुरोधेन तथा भृतधर्माकान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात् । तदिदमाह
* "सम्भावे आइद्रो देसो देसो अ उभयहा जस्स । तं 'अस्थि अवचव्वं च होह दवियं विअप्परसा ।।" [ सम्मति गाथा ३८ ]
[स्यादस्ति अवक्तव्यश्च-पंचमभंग] ___ जब किसी वस्तु के किसी एक अंश को प्रवक्तव्य बताते हुए उसका अस्तित्व बताना होता है और दूसरे अंश के एक काल में अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा होने पर उसका अस्तित्व बताते हए उसे अवक्तव्य बताना होता है सब सप्तमी वाक्य के प्रवयवमत पश्चमभडन्य है । जैसे:-वस्तु के दो अंश हैं, अस्तित्व और नास्तित्व । इनमें से जब अबक्तव्य के साथ अस्तित्व का तथा अस्तित्व के साथ अवक्तव्य का प्रतिपादन करना होता है सब 'स्याद् अस्ति च प्रवक्तव्यश्च' इस भङ्ग का प्रयोग होता है यह भङ्ग विवक्षाभेद के कारण केवल प्रथम और केवल तृतीय भङ्ग से भिन्न होता है । प्रतिपाद्यम्योषनीय पुरुष प्रथम और तृतीयभङ्ग के प्रतिपाद्य प्रर्थ को एक दूसरे से असम्बद्ध रूप में जानना चाहता है अतएव प्रतिपादक-बोधयिता पुरुष को भी बसो हो विवक्षा होती है। फलतः प्रथम भङ्ग से प्रधानरूप से अस्तित्व मात्र का ही बोध होता है, नास्तित्व उसके कुक्षिगत हो कर गौण रहता है, और तृतीय भङ्ग से अस्तित्व. नास्तित्व वोनों का सम प्रधानरूप से बोघ होता है, क्यों कि वे दोनों भङ्ग बसी जिज्ञासा से प्रयुक्त होते हैं। किन्तु पञ्चमभङ्ग में उन दोनों भङ्गों से अन्तर है उसका कारण यह है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है, अतः प्रतिपायपुरुष को अनेकरूपों में उसकी जिज्ञासा हो सकती है, वक्ता को उसके अनुसार ही जिज्ञासित धर्म के रूप में ही वस्तु को प्रतिपादित करने की इच्छा होती है। पत्रमभङ्ग का प्रयोग यतः वस्तु को एक अंश के अवक्तव्यस्व से अनुविद्ध अस्तित्व की और दूसरे अंश के अस्तित्व से अनुविद्ध अवक्तव्यत्व की जिज्ञासा से होता है न कि प्रधानरूप से अस्तित्व मात्र की, कि वा प्रधानरूप से प्रस्तित्व नास्तित्व दोनों की जिज्ञासा से होता है अतः जिज्ञासानुसारी बोध का जनक होने से यह केवल प्रथम और तृतीय से मिन्न होता है। उक्त बात सम्मतिग्रन्थ के प्रथमकांड की अडतीसी गाथा में इस प्रकार कही गयी है
"जिस तव्य का कोई एक अंश सतरूप में और दूसरा अंश एक साथ हो सत्-असद उभय रूप में दणित होता है यह द्रव्य जिज्ञासा और विवक्षा के कारण कश्चित् अस्ति और प्रवक्तव्य होता है।"
यदा च वस्तुनो देश एकोऽसत्त्वेऽवक्तव्यत्वानुपिद्धे निश्चितः, अपरश्चासत्चानुविद्धो युगपदुभयथा विवक्षितस्तदा तथाव्यपदेश्यावयवक्शादवयविनि षष्ठभङ्गप्रवृत्तिः, केवलद्वितीयतृतीयभङ्गव्युदासः प्राग्वत् प्रतिपाद्यजिज्ञासावशात् । तदिदमाह-[सम्मति गाथा-३६] ॐ सद्भाव आदिष्टो देशः देशनोभयथा यस्य । तद् अस्ति-अबक्तव्य च भवति ध्यं विकल्पवाद ।।