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स्या.क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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"आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स । तं गस्थि अवतव्वं च होइ दवि विअप्पवसा ॥"
['स्यामास्ति-अवक्तव्यश्च'-छट्ठा भंग ] जब वस्तु के एक अंश को अवक्तव्य बताते हुए प्रसव बताना होता है और दूसरे ग्रंश की एक ही काल में सव-असत् दोनों रूपों में विवक्षा होने पर उसे अस बताते हुए प्रवक्तव्य बताना होता है तब अंश का उक्त रूप में व्यपदेश होने से अंशो वस्तु में 'स्यानास्ति च अवक्तव्यश्च' इस छठे भङ्ग का प्रयोग होता है यह भङ्ग भी प्रतिपाद्यपुरूष को जिज्ञासा के कारण- ( केवल प्रथम भङ्ग और केवल सृतीय भङ्ग से भिन्न पश्चम भङ्ग के समान ) केवल द्वितीय और केवल तृतीय भङ्ग से भिन्न होता है। सम्मतिग्रन्थ के उनचालीसवीं गाथा में यह बात निम्नरूप में कही गयी है
"जिस वस्तु के एक अंश का असत्त्व अवक्तव्यत्व के साथ वणित होता है और दूसरे अंश के असत्त्व और सत्त्व दोनों की सह विवक्षा होने पर प्रसत्त्व के साय प्रवक्तव्यश्व प्रतिपादित होता है तब यह द्रव्य नास्ति और प्रवक्तव्य होता है।"
यदा च वस्तुनो देश एकः सत्त्वे नियतः, द्वितीयश्वाऽसत्त्वे, इतीयस्तूभयथाऽभिषित्सितस्तदा तथाभूतविशेपणाध्यासितस्यानेनैव प्रकारेण प्रतिपादनादीदृशेऽर्थेऽपरभङ्गाविषयाऽप्रसरात सप्तमभङ्गप्रवृत्तिः। तदिदमाह-[ सम्मति गाथा-४०]
9"सकभावासम्भावे देसो देसो अ उभयहा जस्स | तं अस्थि णस्थवत्तव्यं च दविअंविअप्पवसा ॥” इति ।
[ 'स्यादस्ति-नास्ति-अयक्तव्यश्च'-सप्तम भंग] जव वस्तु का एक अंश सदरूप में, दूसरा अंश असद् रूप में और तोसरा अंश सत्-असद् उभयरूप में विवक्षित होता है तब उक्त विशेषणों के आस्पदभूत वस्तु का सत्त्व-प्रसत्त्व और प्रवक्तव्यत्व रूप से हो प्रतिपादन होता है, इस प्रकार प्रतिपादित होने वाले अर्थ में अन्य किसी भङ्ग के विषय का प्रवेश न होने से उक्तरूप में वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए सप्तम भङ्ग का प्रयोग होता है, जिसका आकार स्याद् अस्ति च नास्ति च प्रवक्तव्यश्च' इस रूप में मान्य है। यह बात सम्मतिप्रन्य की चालीसवीं गाया में निम्नरूप में की गयी है
“जिस द्रव्य का एक अंश सद्रूप में, दूसरा अंश असदरूप में, और तीसरा अंश सद्-असमय रूप में सह विवक्षित होने से अवक्तव्य रूप में, प्रतिपादित होता है वह वष्य जिज्ञासा और विवक्षा के अनुसार स्याद् अस्ति स्यान्नास्ति और स्याव् अवक्तव्य' होता है।"
अथानन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधा परिकल्पनेऽष्टमोऽपि विकल्पः किं न स्वीक्रियते ? इति चेत् ! न, नत्परिकल्पनानिमित्ताऽभावात् , सावयवात्मकस्य निरवयवात्मकस्य चान्योन्यनिमित्तकस्य जिज्ञासायां चतुर्थादिप्रथमादिविकल्पानामेत्र प्रवृचः । किञ्च, क्रमेण धर्मद्वयं गुण-प्रधानमावन प्रतिपादयन् प्रथम-द्वितीयावेत्र भङ्गाबाददीत, युगपत्त द्वयमॐ आदिष्टोऽसद्भावे देशो देशनोभयथा यस्य । तद् 'नास्ति अवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशाद् ।। 'सद्भावासद्भावे देशो देशश्वोभ यथा यस्य । तद् 'अस्ति-नास्तिक-अवक्तव्यं च द्रव्यं विकल्पबशाद ।।