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________________ [ शात्रा० त०७३लो. . यदपि 'जासापखण्डोपाधित्वापादने फलतोऽसमवेतत्वमेवापाधते, तमाशयम , समवेतस्वस्य तत्र प्रत्यक्षसिद्धत्यान' इति, तवपिन, समवेतत्वस्य स्वदतिरिक्तेनाऽननुभवान् । संघन्धशि बिलक्षणप्रतीवेरप्यसिद्धः, 'इस घटत्वम् इह भावत्वम्' इति वियो लक्षण्याऽसिद्धः । इष्यते च भावत्वमखण्डोपाधिरूप नवीन:-न्यादा ससादौ च 'भाषः-माव इत्यनुगतधियः संवन्धाशे लक्षण्याननुभवेन समवाय स्वाश्रयसमवायान्यतरसंबन्धेन सच भावत्वम्-इति प्राच्यमवस्य पणादिति न किश्चिदेता । [अखण्डोपाधित्व को असमवेतन्य माने तो भी क्या ?] कुछ लोगों का यह कहना है कि-"प्रसव के समान घटत्वावि आतिनों में अखण्डोपाधिस्य का साधन फलसः प्रसमवेतःप के साथन में ही पर्षवसित होता है पयोंकि जाति और अक्षयोपाषि में केवल इतना ही मन्तर होता है कि प्रखंडोपाधि असमवेत होती है और जाति समवेत होती है। तो फिर जब अक्षम्योपापिय के सामन का पर्यवसायन प्रसमवेतस्य के साधन में ही होता है तो वह बापय नही हो सकता, क्योंकि घटत्याधि में समवेतत्व प्रत्यक्षसिद्ध है अत एव समवेसरव के प्रत्यक्ष से अप्तमवेतवसाधन का बाप हो जायगा।"-किन यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि घर:वादि में प्रखण्डोपामित्व के साधन का उक्त रोति प्रतिवाव करने वालों को छोड़कर किसी अन्य को घटस्वादि में समवेतस्प का प्रत्यक्ष भानुभाबिका नहीं है। [संबन्धाश में लक्षण्य का अनुभव मिथ्या है] मदि यह कहा जाय कि-'प्रखण्डोपाधि की प्रतीति से आति की प्रतीति सम्बन्धीत में विलकम होती है अत: जाप्ति प्रप्तीति को समवायसम्बश्पविषयक और अखण्टोपाधि को प्रतीति को स्वरूपसम्बन्धविषयक मानना उचित है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि "इह घटत्वम्स में घटत्व ए" और "इह भाषाम-इसमें भाषाव है" इन बटवरूप जाति और भाववरूप अखण्टोपाधि विषयक प्रतीतिभों के सम्बन्धोश में लक्षण्य असिव है। यदि यह कहा जाय कि-'यह भावत्मम्' मह प्रतीति भी जाति विषयकही है, क्योंकि भावत्व ससानाति से अतिरिक्त महीं है तो यह भी ठीक नही है क्योंकि नत्रोम नैयायियों ने भाषत्व को अखण्डोपाधिप माना है। प्यादि में जो 'प्रग्याठिक भाषः' और सत्तादि में 'ससादिक भावः' यह अनुगप्ताकारद्धि होती है उस में सम्बन्धांश में सक्षम्य का अनुभव नहीं होता। भल: 'म्यादि में समवायसम्बन्ध से सत्ता ही भावव है' यह प्राचीन मत दोषयात है। तस्मात् सामान्यविशेषरूपमेय वस्तु स्वीकर्तव्यम् , यद् अविशिष्ट प्रतिवमनुगतं विशिष्ट च विशिष्टानुगतमविशिष्टप-परय्यावन स्वमावत एव चित्रक्षयोपशमशाद गुणा--प्रधानभावेन परस्परकरम्विते भासन । अत पर घटल्वांश इस घटशिऽप्यनुगताकारा धीः । अत एव ए महानसीय थूम एवाभिमुखीभूते सामान्यतो गृक्षमाणा च्याप्तिः पर्वतीयधूमेऽपि पर्यवस्पति, संवतविशेषाकारे धृमसामान्य एव तद्ग्रहाद । न हि तदुतर सामान्यप्रत्यासत्या सकलमविशेध्यकं व्यामिज्ञानं जायमानभनुभूयते, किन्तु प्रथममेव, तथाक्षयोपशमवशात् । सामान्यप्रत्पा
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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