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________________ [ शास्त्रवास० त० ७ लो० २१ t इत्याक्षेपे, प्रत्यक्षं किं स्यात् तस्य सर्वथा मानत्वात् मानसामान्यव्यापकस्वभावत्व एव तथात्वोपपत्तेः । पराशयमाशक्याह-तत्-अधिकृतं मानं तत्प्रत्यक्षं नानुमान, प्रत्यक्षस्वभावत्वाच्चेत् ? एवं सद्भाव दिले अनुमान मानवमन्तरेण कथं मानमेवेति स्याव, प्रत्यक्षस्य विमानत्वेनैव मानत्वात् अनुमानमानवेन चामनित्वात् इति । १२४ 3 [ प्रमाण भी सर्वधा प्रमाणरूप नहीं है ] यदि after किसी प्रमाण को सर्वथा प्रमाण ही माना जायगा तो प्रत्यक्षप्रमाण भी लेकि अनुमान प्रमाण से अभित्र हो जायगा क्योंकि प्रत्यक्ष में एकान्तवासी को सबंधा प्रमाणश्व मान्य है और यह उसे व्यापकरूप से सामान्यतः सभी प्रमाणों के रूप में प्रमानस्थमश्व मानने पर ही उपपत्र हो सकता है। इस पर एकता की ओर से यदि यह शंका को जाय कि - " अभिकृत प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण प्रत्यक्ष करणभाव होने से प्रत्यक्ष हो है अमवरूप नहीं है, इसलिये प्रत्यक्ष को मानात्मक माने दिन भी उसके सर्वथा प्रमाणत्व में कोई बाधा नहीं है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष में सद्भाव तत् अनुमान का भाव अर्थात् अनुमानप्रमाणश्व माने बिना प्रत्यक्ष प्रमाण हो है'यह कैसे हो सकता है ? जब कि एकान्तवादी को अनुमानप्रमाणत्व उसमें दृष्ट न होने पर उसे प्रत्यक्ष रूप से ही प्रमाण और अनुमानप्रमाणत्वरूप से अप्रमाण मानना आवश्यक होता है। अत्र नैयायिकादयः- नन्वनुमानान्यत्वेऽपि प्रत्यश्वस्थ प्रत्यक्षं मानमेव' इति प्रयोगो न दुर्घटः । न हि 'मानमेव' rear retrayi: कस्याप्येकस्य कृत्स्नमानरूपत्याभावात् किवयोगव्यवच्छेदः । तत्र च व्युत्पतिवशात् मानश्वावच्छिन्नप्रतियोगिता का योगोपस्थितैर्न दोषः प्रत्यक्षेनुमानस्यावच्कियोगसच्चेऽपि मानल्याच्छियोगाभावादिति 1 , अत्रेयमेक्कार मर्यादा 1 विशेष्यसंगतैवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदोऽर्थः यथा पार्थ पत्र धनुर्धरः' इत्यादी । विशेषणमं गते त्रकारस्या योगव्यवच्छेदोऽर्थः यथा 'शङ्खः पाण्डुर एव' इत्यादी । क्रियासंगत वकारस्याऽत्यन्तायोगव्यवउछेदोऽथ यथा 'सरोजं नीलं भवत्येव' इत्यादी । अत्र तत्तद्विशेष्यसंगकारा देस्त सदस्य योगव्यवच्छेदादी शक्तिः । [ न्यायमत से 'प्रत्यक्षं मानमेव प्रयोग के उपपादन की आशंका ] नैयाका प्रत्यक्ष को अनुमान से मि मानते हुये भी 'प्रत्मानमेव प्रत्यक्ष एकान्ततः प्रमाण ही है इस प्रयोग की दुर्घटना का निराकरण करते हैं। उनका आशय यह है कि प्रश्व माममेव' इस प्रयोग में माम श के उत्तर लगे हुए एवकार का अर्थ का संपूर्णता ) नहीं है, कोई भी एक प्रमाण समग्रप्रमाण स्वरूप नहीं होता । मतः 'मानमेव' का 'कुन मानम्' अर्थ के प्रत्यक्ष मानम् इस अर्थ को असम्भव हा प्रत्यक्षं मानमेव' इस प्रयोग को द कहना उचित नहीं है। किन्तु 'प्रत्यक्षं माममेव' इस प्रयोग में 'एव' कार का अर्थ 'अयोगव्यवच्छेद है, और पति है कि पत्र से समभिव्याहुत एवं कार तद्धमविछिन्नप्रतियोगि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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