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________________ क्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १२५ are अयोग के छेद का बोधक होता है। छातः इस व्युत्पति के अनुसार 'प्रत्यक्षं मानमेव' इस वाक्य से प्रत्यक्ष में मानाचावन्न प्रतियोगिताक अयोग प्रर्थात् मानसामान्य के साम्याभाव देव का बोध होता है। अतः प्रत्यक्ष भी मानस्वरूप होने से उसमें मानसामान्य के सा भाव रूप प्रयोग का देव सम्भव होने से 'प्रत्यक्षं मानमेव' इस प्रयोग के दुर्घटस्वरूप बोध की नहीं होती है क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान का प्रयोग होने पर भी मानव का अयोग यानो तादात्म्याभाव नहीं है। [ विशेष्यसंगत एत्रकार का अर्थ ] इस संदर्भ में प्रसंगवश व्याख्याकार मे प्रसिद्धि के अनुसार अर्थ मर्यादा बताते हुये कहा है fs एवकार तीन प्रकार का होता है- ( १ ) विशेष्यसंगत एवकार (२) विशेषणसंगल एवकार और (३) क्रियासंगत एवकार उम में विशेष्यसंगत एवकार का अर्थ है अध्ययोग श्यम जैसे 'दार्थ एव धनुर:' इस प्रयोग में एवकार विशेष्यवाचक पार्थ पव से समभिष्यात सहोरिल) है अल एव वह प्रयोग का बोधक होता है। उसके अन्ययोग्य अर्थ के एक देश अन्यश्व में पापा का प्रतियोगितासम्बन्ध में अम होता है। पार्थान्ययोगव्यवच्छेद अर्थात् पार्थान्यनिरूपितवृतिस्वाभाव । उसका अन्वय धनुर्धरस्यरूप विशेषण पवार्थ के एक देश में होता है और उप से गृह्यमाण धनुर्धरत्यय का पाथणस्वार्थ में अमेदसम्बन्ध से धन्वय होता है अतः उक्तवाक्य का अर्थ यह पर्यवसित होता है कि पार्थ पाव्य में अवृत्ति तुव के आश्रय से प्रति है। अर्थात् पार्थ में ऐसी विलक्षण पशुधरता है जो पार्थान्थ में अवृत्ति है, ( पार्थाम्य में जिसके योग का व्यदेव से [ विशेषसंग कार का अर्थ | विशेषण संगल एवकार का धयं है अयोगव्यवच्छेद जसे 'शङ्खः पाण्डर एव' इसमें एवार विशेषणोधक पाण्डुर पब से सहोपवरित है अत एक इस वाक्य में वह प्रयोगष्पवदेव का बोधक है। अयोग का अर्थ है सम्बन्धाभाव उसके एकवेश सबन्ध में 'पावडर एकदेश पाण्डवका अन्वय होने से पार एवं का अर्थ होता है - पारत्वसम्बन्धाभाव का प्रभाव उसका स्वरूप सम्बन्ध से शंखपदार्थ में प्रत्यम होने से उक्त वाक्य का अर्थ होल है 'भांखः पाण्डुरश्वसम्बन्धभाषा star' अर्थात् शंख में पाण्डर का सम्बन्धाभाव नहीं होता। सभी पंज पाण्डर ही होते हैं। [क्रियासंगत एवकार का अर्थ ] क्रियासंगत वकार का अर्थ है सत्यायोगस्यद्येव । जैसे, 'सरोजं नीलं भवत्येष' इस वाक्य में 'एव' पद 'भवति' इस क्रियापन से समभिव्याहृत सोचरित है एवं उसका अर्थ है अत्यन्त योगच्छेव । उसके एक देश अत्यन्तायोग में 'भोलं भवति' इस हाय के अर्थ मोलाकोहपति का अन्यय होता है, अतः सरोज में नीलक के उत्पत्ति के अत्यन्तायोग का प्रभाव प्रतीक्ष होता है अतः मीलान्य सरोज में मीलक के उत्पत्ति का अयोग होने पर भी मोल्सरोज में मीलउत्पति का योग होने से सरोज में नीलकर्तृ के उत्पत्ति का प्रयोग नहीं होता अर्थात् सरोज में सोमवव्यापक उत्पत्यभाव का प्रभाव होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि तसविशेष्यसंगत एवकार को तत्त्वस्ययोगभ्यवपाद्वेव में एवं सत्तद्विशे
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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