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________________ स्या १० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १२३ यदि यह कहा आय कि-"सवभावासकारक साप्रकारकापनत्व ही प्रकारकनिषत्व है। अप्सको कुक्षि में सबंश में अवधारणात्मक विषयता का निवेश प्रनावश्यक है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निश्चमत्व की कृशि में रामक बिल: - 4: सरकार ने किश्चिद रुपयत्' इस प्रकार के सत्प्रकारकानध्ययसाय में मसिम्माप्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि'अनुरकट एक कोरिक समाम को ही अनध्यवसाय कहा जाता है। अतः भमध्यवसाय में तत् के समान तवभाव का मौ प्रकार विषया मान होने से मिण्यमस्व को तवभावाप्रकारकत्वे सति तस्प्रकारक मानस्वरूप मानने पर भी मामध्यवसाय में तत्प्रकारकनिश्चयस्य की अतिव्याप्ति नहीं हो सकती"सोपाठीकायोंकि अनकहरनका निट लिन सम्भव होने से मरकटकोटिक संशय को अनध्यवसाय न गन कर 'तबंध में अस्पष्टतात्पषिषमतामाालोमान'को हो तद्विषयकानधन सामना उषित। अतः निचयनको क्षि में अवधारणामविषयप्ता का निवेशनकर सब मावाप्रकारक तत्प्रकारक ज्ञानस्व को निश्चयत्वरुप मामाने पर तविषयकानाध्यवसाम में तहिषयमनिश्चमत्व की आपसि दुर होगी। दूसरी बात यह है किसे भानध्यवसाय में अस्पष्टताल्पविषयता मानुभविक है उसी प्रकार निश्चष में सनव्यवसाप च्यात्त अवधारणात्मक विषयता भी मानुमाविक है। अतः तदभावाप्रकारकतरप्रकारक वामस्य को नियम का लक्षण मानने की अपेक्षा सवंश में अवधारणनामक विषयता को तत्प्रकारक मित्रपका लक्षण मानने में लाघव है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र प्रष्टव्य है। [एवकार प्रयोग की अनुपपति के दोष से निस्तार] व्याख्याशार का कहना है कि अनेकान्तबाव में प्रमाण को एकाम्तता प्रमाण म मान कर कथित अप्रमाण मामने पर भी केवल अर्थ के मिश्चम को प्रापत्ति का हो परिहार नहीं होता किन्तु 'एषकार के प्रयोग की अनुपपत्तिरूप अनिचय की भापत्ति' का भी परिहार हो जाता है । अर्थात् 'स्यात्' पद का योग करके वस्तु के किसी धर्मविशेष का एषकार से प्रबंधारण भी किया जा सकता है। जैसे-चित्रघट में नौलमा को अपेक्षा 'घटः कथविद् मील एव' अर्थात् 'घट अमुकभाग की अपेक्षा नील ही हैं। इस अवधारणा के समान एवं प्रयामघट में पाक से रक्तरूपको चरपतिकाल को अपेक्षा 'यटः कश्चिद प्ररथाम एपघट अमुक काल में श्याम ही है इस अवधारण के समान, ए पाक से घर में रक्तरूप की उत्पत्तिकाल में विद्यमान घट में स्वभाष यानो घरस्वरूप की अपेक्षा "कचित् स एवापमस्वस्वरूपापेभपा अश्यायघट यामघष्ट से अभिन्न हो है" इस प्रबधारण के समान, बस्तु के अन्म अन्य स्वरूपों का भो यात्'-पर सहकृत 'एव' पर से प्रसधारण, भनेकान्तबाव में भी सबंया शक्य है। २१ को कारिका में एकान्तवारी के मत में प्रमाण को एकान्ततः प्रमाणरूपता का अभ्युपगम घुर्घट है इस विषय को स्फुट किया गया है .. परस्य तु दुर्घटोऽयमित्युक्तमेन प्रकटयतिमूलम्-मानं पेन्मानमेवेति प्रत्यक्ष लैहिक ननु । तसन्मानमेवेति स्पास् तापाइते कपम् ॥२१।। मानं थेदधिकृतं मानर्मच-सर्वथा प्रमाणमेव, इति हेतोः सर्वथा प्रमागत्यात् , 'मनु'
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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