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[ मास्त्रवा० मत ग्लो०२०
नसभाक्ष्यास्ति' स्यादि ग्राम से किया इस प्रन्थ का प्रारम्भ उच्यते-पागे न बोषः" इन कामों
मध्याहार से अभिमत है। पन्थ का प्राशय यह है कि संशय में सदभावव्याप्ति में पर्यवसित तद्रवपू. त्तिस्वरुप विरोध का मान मानने परमो तत-सामावप्रकारक संशष में सदमावस्याप्यवसामिभापत्व नहीं होगा, क्योंकि तवंश में अवधारणामक विषयता हो लवंशविषपक निश्चयस्वरूप है । संशय में तहिस्वधर्म का तमभावव्याप्यत्वाप तावसित्वरूप से मान होने पर भी उस धर्म में अवधारणात्मक विषयता न होने से संशय में तनावमाम्यवत्तानिश्चयश्व नहीं हो सकता।
[ 'इत्थं च अन्यसंदर्भ का अन्य रीति से व्याख्यान ] अथवा 'इत्थं च से लेकर 'प्रतिक्षिप्ता' पर्यात ग्राम का नामासम्म समुचित व्याख्यान यह ह मारा, संगम में मासमान धर्मों में विरोषावधारण को आवश्यकता बताने पर पन्य पूर्वपक्षी विद्वानों का यह कहमा है कितनवृत्तिवावि विरोध का संमाय में भाम मामने पर संशय तदभावप्यायप्रकारक निभ्रमरुप हो जायगा अत: संशय के प्रति संशय हो प्रतिबन्धक हो जाने से उसको उपपतिम हो सकेगी। विरोणाविषयक एक घी में स्थाणरव और स्थाणुस्वाभावप्रकारक शान में संशयत्व की अनुपपति होगी। अतः यदि संशय में विरोध माम मानना ही है तो उसमें परस्परमह प्रतिबन्धकसाबमोदकधर्मरूप बिरोष का मान पानना उचित है। क्योंकि इस विरोध का भान मामने पर उक्ता भीष नहीं होंगे-किन्तु ऐसा मानने पर प्रमाण में अप्रामाण्य संकाय के अनुदय का समर्थन जनों से मही हो सकता क्योंकि प्रामाण्य प्रोर अप्रामाण्य के जान में भी वचित परस्परपह की प्रतिबन्धकता होने से उस प्रतिबन्धकता के प्रथमश्वक प्रामाण्यत्व और अप्रामाण्यवरूप विरोभ वगाही अप्रामाण्य के संगाय का पारग न होगा।
किन्तु म्याख्याकार का कहना है कि इस विषय को प्रस्तुत करनेवाले पूर्वपक्षी वक्ष्यमाण (-- आगे कही जाने वाली) पूक्तियों से प्रतिक्षित हो जाते हैं । पमाण पुस्लिमों में प्रथम मुक्ति यह है कि परस्परमहप्रतिबन्धकताबनधर्म को विरोध मानकर उसके भान द्वारा संशय में विरोधविष्यकरप का समर्थन करने पर घट रूपयान रसवांन वद्धि में संशवको आपत्ति होगी, क्योति रूपत्व-रसत्य भी उस रीति से स्थालविशेष में परस्परग्रहप्रतिवधकतावच्छेवक होते हैं। दूसरी युक्ति संशय में तासित्वरूप विरोध का भाम मानने पर मो संशय में तवभावव्यास्यप्रकारक निवपत्य की आपत्ति देकर संशयानुपपत्तिड़प रोष बताया गया है उसका समाधान रूप है।
सिद्धारतो जम का आशय यह है कि विरोधाऽविषयक एकथमिक स्याणस्व-स्थाणुत्वाभावप्रकारक जान में जो संशयाव के व्यवहार की मापति बतामी गयी है-बह उचित नहीं है क्योंकि 'संशयधिवयोमूत धमो में संशय में ही विरोषमा भान होता है यह जनों की मान्यता महीं है जिसे पहले ही यह कहते हुए स्पष्ट कर दिया गया है कि कहीं विरोष का अवधारण संशय से पूर्व होता है और कहीं संजय के बाव होता है। अतः उक्तशाल के पूर्व प्रथवा बाद में उसमान में मासभरन स्थाणुत्व प्रौरयाणस्वामाव में विरोध का प्रबंधारण माम लेने पर उसमें संशय के जैनसम्मत उक्त लक्षण की स्याप्ति नहीं हो सकती । संशम के साथ विरोध की स्फति-पक्ष में को संबाय में सदभावमिश्नमत्व का श्रापादन कर संशयानुपपत्ति का प्रदर्शन किया गया है उसका समाधाम यह है कि संशय में तवभावम्याप्यांश में अवधारणात्मविषमता न होने से तवंश में प्रवधारणात्मक विषयताखाली नामस्वरूप निश्चयत्व संशय में सम्भव नहीं है।