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________________ स्याटीका एवं हिमी विवेचन ] से प्रतिबन्धक माना आषा तो 'पर्वसो वलिमाम बल्ल अभावव्यायाम' यह मान स्व के प्रति प्रतिअम्बक नहीं होगा। क्योंकि उस कान में बलिप्रकारकरवामाव घटित वलपभावग्याप्यप्रकारकनिश्चयस्वरुप प्रतिबन्धकतावच्छेचकनहीं है। फलतः 'लयमावण्याप्यख्याध्यवान बहिण्याच्याश्च परस:' इस परामधा से 'पर्वतोपहिमान पहचभावण्याप्योन' इसप्रकारको भानुमिति जो धर्मी में बलि प्रकारक मोर पस्न निकाहने संसारकात होगी। तीसरा दोष यह है कि एक धर्मी में स्यागुत्व और माणुस्वामावप्रकारक विरोधाऽविषयक मान में भो संबायस्व का व्यवहार होला है, उसकी इस पक्ष में अनुपपति हो बापणी । इसका अम्यु पगम भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि यह ज्ञान संपाय से मन्य होगा तो उससे मिश्चषकार्य को अपवि स्थाणुरवप्रकाएक निश्रय के स्थाणस्वाभावप्रकारकज्ञान प्रतिवन्धरूप कार्य की एवं स्थाणुरवाभावप्रकारक मिश्रम के स्थाणवप्रकाएक साल के प्रतिपय कार्य को आपत्ति होगी । फलतः उक्त मान के बाद सरसमानाकारतान की पत्ति न हो सकेगी। विरोधाविषयक उक्त ज्ञान में संशयत्वव्यवहारानुपपत्तिरूप बोष संशय में विरोध के संसर्गविषया मानपक्ष में भी मपरिहार्य है। तृतीयकोष के कारण हो संशय में अस अन्यविध विरोध के प्रकारविषया अथवा संसर्गविषया माम के भम्युपगम का विसीय पक्ष भी अग्राह्य है। [दूसरे प्रकार के विरोध की समीचा ] यति-"स्वतन्त्र रीति से विरोधपदार्थ का इस प्रकार निर्वधन किया जाय किमो धर्म शानविषयतया परस्परमान को प्रतिबन्धकता का अवाक होता है वही परस्पर का विरोध है और संशय का यह निर्वधन किया जाय कि इस विरोध को ग्रहण करनेवाला एक पमी में धमंय का कान हो संपाय है-तो उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि विशेष्यतासम्बध से स्थाणत्वाभावप्रकारकशान के प्रति स्वप्रकारकमान विशेष्यतासम्बन्ध से स्थागुत्व, तमा विशेष्यता सम्बन्ध से स्थाणामप्रकारक जान के प्रति स्कमकारकझामधिशेयतासम्बन्ध से स्वास्वाभाव, प्रतिबन्धक है। इसप्रकार स्थावरण और स्यानुस्वाभाव में परस्परमह की प्रतिमन्धकता है। अतः स्थास्य और स्थाणुरयामावत्यये बोनों धर्म, विरोषपदार्थ के उस नियंचनानुसार, विरोधस्वरूप हो जाते हैं। प्रस: एक धर्मों में स्थाणुस्व और माणस्वाभावप्रकारक जान के भी विरोधप्राहक हो माने से उक्तमान में संशयासण्यवहार की अनुपपत्ति महीं हो सकती।" किन्तु बिरोधपदार्थ का मोह-अवरना शताया इसप्रकार निबंधन करनेमाले विद्वान भी इस कारण निरस्त हो जाते हैं कि एकधर्मी में उक्त विरोषप्राहक पदय के नाम को संवाय मानने पर 'घट: रूपवान सबसि जान में भी संशयस्व की प्रापत्तिहो आतीयोंकि 'यो यः रूपवान सरमामाबवान' समानकाल में समान' मानपज्ञान का प्रतिबाधक होता है। प्रसः रूपरव-रसत्व भी रूप रस के परस्परप्रहका प्रतिबन्धकताबमवक होने से नियत विरोषस्वरूप हो जायगा। अतः उक्त जान भी एकप्रमों में विरोषणाहक रूपरसस्वरूप धर्म का हान हो जाता है। [संशय में प्रकार विधपा विरोधमान में दोष का उद्धार ] व्याल्पाकार मे सक्त विरोध के सम्बध में उक्त विकल्पों में प्रथमपक्ष का समय 'संशमे १. मूलम्पास्यासप में 'इति शम्द का अर्थ है अवि और उसकी योजना प्रतिक्षिप्ता के पूर्व में अभिप्रेत है और स्वतन्त्र पद के पूर्व में प्रतेन' शब्द का समभिन्याहार विक्षित है ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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