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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ७ ० २०
संशये तदभावव्याशिपर्यवसायिविरोधभानेऽपि तदभावव्याप्यवत्तानिश्रयत्वाभावात्, तदंशेधारणात्मक विषयताया एव तदंशे निश्चयत्वात्, अन्यथाऽनध्यवसायेऽतिव्याप्तेः । न चानुस्कटककोटिकः संशय एवानध्यवसायः अनुत्कटत्वाऽनिरुक्तेः ( अ ) स्पष्टतावदवधारणाख्यानध्यवसायविलक्षण विपयतानुभवाच्चेति अन्यत्र विस्तरः ।
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एवकारप्रयोगानुपपत्तिरूपोऽनिश्चयोऽपि नास्माकम् स्यात्कारगर्भत्वेन तदुपपत्तेः, चित्रे पटेऽशापेक्षया 'कथञ्चिद् नील एव' इतिवत् श्यामे घटे कालापेक्षया कथञ्चिद् 'न श्याम एव' इतिवत् एतत्कालवृत्तौ स्वभावापेक्षया कथञ्चित् स एवायम्' इतिबद्-इत्याद्यूलम् ॥२०॥ [ संशयलक्षणान्तर्गत विरोध का स्वरूप क्या है ? ]
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'परस्परविरोधवत्तया निर्णीत धर्मयुगल का एक धर्मो में प्रतिभास ही संशय है' संशयलक्षण के इस निर्वाचन के सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि-संशय में भरक्षित होने वाले धर्मो में जो विरोध विवेक्षित है वह तद्वदवृत्तित्वरूप है अथवा तत्प्रकारकज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञान का विषयत्वरूप है। तथा इस विरोध का ज्ञान प्रकारविधथा विवक्षित है अथवा संविधया ? प्रश्न का श्राशय यह है कि एक धर्मों में जिन दो धर्मों के ज्ञान को संशय कहा जाता है उन धर्मों में से एक धर्म में धर्मान्तराश्रायावृतित्व का प्रथवा धर्मान्तरप्रकारक ज्ञानप्रतिबन्धक ज्ञान के विषयत्व का प्रकार विधया अवधारण अपेक्षित है प्रथवा संसगंविधया ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रथमपक्ष अर्थात् तद्वदवृत्तित्वरूप विरोध का प्रकारविधया ज्ञान आपेक्षित है' यह पक्ष स्वीकार्य यानी युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि सद्वदवृत्तिस्वरूप विरोध तवभाव की स्वाभाववचवृत्तित्वरूप व्याप्ति में पर्यवसित होता है। अत एव वह संशय का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि संशय में उसका भान मानने पर संशय संशयरूप न रह कर तदभावव्याप्यप्रकारकनिश्चयरूप हो जाने से स्वात्मक संशय के प्रति प्रतिबन्धक हो जायगा । फलसः तवभावव्याप्यत्रकारक निश्वयाभाव कार्यकालवृत्ति होकर कारण होने से संशय की उत्पति न हो सकेगी। क्योंकि संशयकाल में संशयात्मक तदभावव्याप्यप्रकारक निश्चय के रह जाने से उसका अभाव नहीं रहेगा ।
यदि यह कहा आय कि- " तद्वद्याध्यवत्तानियश्व को कुक्षि में तवभावाऽप्रकारकस्य का निवेश कर दिया जायगा । अतः वह्नयभावस्याप्यप्रकारकनिश्चयस्व वह्निस्वरूप वह्नभावाभाष प्रकारकत्वाभाव से घटित होगा । इसलिये वह्नि-वघभाव उभय प्रकारक संशय में बह्नघभाव में वह्निमवृत्तित्वरूप वह्नभावव्याप्यत्व का मान होने पर भी उसमें वह्निरूप व भावाभावप्रकारकत्व के भी होने से उक्त संशय वलयभावव्याप्यत्तानिश्वयरूप न हो सकेगा। श्रत एव संशय को स्व के प्रति प्रति बन्धकत्वापति नहीं हो सकेगी" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तत्प्रकारकबुद्धि में तवभावव्याप्यवत्ता निश्चय को जो प्रतिबन्धकता होती है उस प्रतिबन्धकता को अवच्छेदक कोटि में तवभावस्वरूप तत् के अमादाप्रकारकख का निवेश करने में गौरव होगा ।
इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि यदि तत्प्रकारक वृद्धि में तदभावव्याप्यवसा निश्चय को तवभावस्वरूप तत् के अभावाऽप्रकारकत्व अर्थात् तवप्रकारकत्व घटिततदभावव्याप्यवनिश्वयत्वरूप