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________________ स्पा टीका एवं हिमी विधन ] १११ प्रतिक्षेप करने में असमर्थ होते हैं । यह असमर्थता हो उन की संरातसुरूपता की अपशोप्तिका है। किन्तु स्याताव में स्थान पर का सममियाहार होने पर मोहास्मस्कता नहीं होती किन्तु ये विषय की सापेक्षतता के निर्णायक होते है । [नैयापिकात संशयलक्षण की समीभा] मेगापिकामि विद्वान ऐसा कहते हैं कि एकधी में ततमोर तबभाव उमपप्रकारक ज्ञान ही संशय है । यहाँ 'एक थर्मी में इसका अर्थ है 'एकधिशेष्यतानिहपिस' । अतः एक विशेष्यतामिकवित तत-सवमाषउमयनिष्ठप्रकारतामुघशाली शान संशय है। अतः समृपयाय में संशपलक्षण की प्रसिस्याप्ति नहीं होती, पोंकि उसमें तनिष्ठप्रकारसा और तभाननिष्टप्रकारता निरूपित विशेष्यतामा में भेष होता है । -इस यायिक मत में 'प्रपं स्थाणुर्वा पुरुषो या' इस प्रकार के संशप की प्रमुपपत्ति होती है क्योंकि वह अभावप्रकारक नहीं है। उसे स्थागुत्व और स्याणस्वामाव एवं पुष्ष्य प्रार पुरुवस्वानाय इन चार भोको प्रकार मानकर उसे स्ताकोटक संमाय मीनार कहा जा सकता योंकि संघायमात्र द्विकोटिक ही अनुभमलित है। दूसरी बात यह है कि 'समुच्य में प्रकारता के भेर से विध्यता का भव होता है और संशय में नहीं होता इस बात में शपथ हो छोर और कोई प्रमाण नहीं है। पुछ लोग संगाषभित्रज्ञान की तत-तवभाव-तदभामव्याप्य मावि मिल जितनी विषयताएं है उन सब का अन्यतमावलप से अनुगम करके सतहिषमताभन्मतमविण्यासाग्यमानस्य को संवाय का लक्षण मानते हैं। उनके मन में संशयस्व संशयान्यापोह यानी संशयभिन्न भिन्नत्व में पर्षसित हो जाता है, जो अपोह को निरस्त करनेवाली युक्तियों से ही मिराकृत हो जाता है। _इत्थं च, बिरोधः किमिह तद्वदत्तित्त्रम् , तद्वत्ताग्रहप्रतिबन्धकप्रहविषयत्वं पा!' तज्ज्ञानमपि प्रकारतया, संसर्गविधया मा। नाया, सदवृत्तिवलक्षणविरोधस्य तदभाषच्यातिपययनायिनः संशवेनास्पशाद , तदमायच्याप्यवचा निश्चयस्य संरायप्रतिबन्धकत्वात् । तदभावस्य च कार्यसहभावेन हेतुत्वात् । तदभारव्याप्ययत्तानिश्चयत्वं च न तदभाषाऽप्रकारकत्वदितम् । गौरवान् । अन्यथा ' यथभाषच्याप्यन्याप्ययान वहिव्यायवान् पर्वतः' इति परामर्शद्वयात 'पर्वतो वल्लिमान , तदभाषव्याप्याश्च' इति संशयरूपानुमिते चरित्रात् , विरोषाऽविषयकधर्मिकस्थाणुत्व-सदभावप्रकारकशानेऽपि संशयव्यवहाराच्च, अन्यथा तस्य संशयान्यत्वे ततो नित्रयकार्यापनः । अत एव न द्वितीयादिरपि । . इति स्वतन्यनीत्या मुन्सो मानविषयतया परस्परग्रहप्रतिबन्धकतारच्छेदकधर्ममेव विरोधपदार्थमाचनाणाः प्रतिक्षिप्साः, क्वचिदू रूप-रसयोराप तथात्वेनैकत्र तदुभयप्रहस्यापि संशय स्वापत्तेः । मूलव्याख्या ग्रन्थ में इस चर्चा का प्रारम्भ जिस वाक्य से हमा है उसमें इस्पा' यह शब्द 'अप' के अर्थ में प्रयुक्त है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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