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[ गास्नातक त ७ प्रलो. २०
Fष्टता
[अनेकान्तपाद में सर्वत्र संशयापत्ति का उद्धार ] बोजाति को भोर से जो अनेकातिवादी के प्रति इस दोष का उद्धापन किया गया था कि पनेकाम्तवानी के मस में प्रमाण एकान्ततः प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर प्रमाण. वस्तु में एकामरूपता रहने पर वस्तुमात्रकी अनेकामरूपता का भला होगा, अतः प्रमाग अन्नमाम भी होगा । इस प्रकार पर्षवाहीशान में प्रामाण-अप्रामाण्य शेनों का संशय हो जाने से अमिनयाभाव प्रसक्त होगा।" किन्तु विचार करने पर पता चलेगा कि अमेकाम्तबाव में यह पौष प्रसत नही होता, क्योंकि मनेकान्तवादो के मत में प्रमाण में अप्रमाणाव का कश्चित समावेश माना जाता है, अत: प्रामाण्यसंशययुक्त प्रपंनिश्रयाभाव नहीं हो सकता। प्रमागरम और अप्रमाणस्व में पाणिव अबिरोष होने से प्रमाण में अप्रामाण्य संमाय घसम्भव है, क्योंकि जिन धर्मों में परस्पर विरोष निर्णीत होता है-ऐसे वो धमों का एक धर्मी में न हो संशय कहा जाता है। समय का यह अर्प स्वपयुवासतिष्ठित चितम्' इस भाष्यप्रतीक से प्रबगत होता है। इस प्रतीक कार्य पह है कि चित्तान, अपने विषयभूतवस्त्र के पचास पानी विपरीत वस्तु को ग्रहण करने में, परिपानीप्रपने पिर
विषयका निकराने में असमर्थ MEHETीकार रता है जो एकधर्मी में परस्परविरुद्धसया मितबोधमो का प्रतिमासाप होता है।
[इस प्रकार मान में संशपस्व के खिये उसमें एक धर्मों में परस्परविरस वो धर्मो का भान प्रावश्यक होने से एक ज्ञान में कथित प्रमाणस्य अप्रमागम का मभ्युपगम करने पर उसमें अमामाम्प का संसम नहीं हो सकता क्योंकि दोनों में अपेक्षामेव से अधिशेष होने के कारण उनमें विरोषाबधारण दुर्घट है।
[विरोधावधारण का तीन प्रकार ) इस प्रकार संशय में एक पीके विशेषणरूप में भासित होने वाले वो धमों में विरोध का अपपारण मावश्यक है। यह विरोधाधारण कही तो पहले होता है और कहीं साव में होता है समा कहीं साथ हो होता है। इसीलिये स्थाणुत्व और पुरुषस्य में विशेष का-पूर्वकाल यि हमे पर वर्तमान में स्थाणुस्व-पुरूषत्व के विरोध का उल्लेख महोने पर भी संशयात्मक ज्ञान में, घमी में चन दोनों का प्रतिमास होता एवं कहाँ संगम के वाव विरोध अवधारण होता है, इसीलिये श्यामत्व और अश्यामत्वका एक घर में 'श्याम एवायं पश्यामः''श्याम ही श्याम हो गया' इस प्रकार प्रान होने पर बार में उन दोनों में विशेष का माधारण होने पर वह मान अपने विषय के मिर्षय में अपवलायी होने से संशयात्मक होता है । तथा कहीं संजय के साथ ही संशयविषपीभूत षो में विरोध का प्रवधारण होता है। इसीलिये जहां विरोधात्मक सम्बन्ध से धर्मदय को उपस्थिति अर्थात नित्यत्वमनिस्याबविश्यम् स प्रयधारण कान से उपस्थिति होकर 'शयः नित्योऽमित्यो .यह संशष को उत्पत्ति होती है उसमें भमिस्पस्म में मिस्यस्व के विरोध का प्रकारविषया प्रभवा सम्बन्धविषया भान होता है । एवं जहां 'शाम्रो निस्यो न वा' इस विप्रतिपतिवापय से संवेह होता है वहां विप्रतिपतिपायघटक विधायक नाब से विरोध की उपस्थिति होमे है संशय में एक पम में दूसरे धर्म के विरोष का भाम होता है।
इस प्रकार मय अपने विषय में अपमय के विषय के विरोध का अवधारण होने पर संदायास्मक भी होते हैं। सा कि सम्मति सूत्र में कहा गया है-'परविचारणे मोहाः' - प्राय नय के विषय का