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________________ ८० [ शास्त्रवास्ति लो०१५ [ परिमाणग्रह के संबंध में लीलायतीकार के अभिप्राय का निरसन ] इस प्रसङ्ग में *मीलावतीकार पावि विद्वानों का यह अभिप्राय है कि-उपसम्पमान अवयषी जिसी भाग में आवृत और किसी माग में प्रयाप्त न होकर सर्वथा हो भनावृत्त होता है और जिस घा में भी अवयत्री का उपायम होता है उस दशा में उसके परिणाम का मो जपलम्भ होता है । केवल इसके परिमाण को इस्तत्वाविजाति का उमलम्भ नहीं होता, बोंकि परिणाममत जाति के प्रत्यक्ष में समरस अवयों से अवछिन्न अवयवो में घशासनिकर्ष कारण होता है। अतः अवयवी को मस्यवों से अत्यन्त भिन्न मानने पर कोई कोष महीं है ।.. विस्तु विचार करने पर पर यह अभिप्राय भी निरस्त हो जाता है। क्योंकि घट में जो परिमाण चिन्च की प्रतीति होती है उसकी उपपति अबयषी को शवयों से भिन्नाभिन्न मारने पर ही हो सकती है। लीभावीकार के कपन का यह मंत्रा भी ठीक नहीं है कि-'परिमाणातजाति को उपाधि में समस्ताबयों से मच्छिन्न मधयमी में पक्षसंमिकई कारण होता है क्योंकि पृष्ठस्थ और मध्यवर्ती अवयों में तनिकर्ष पाश्य न होने से अबमवी में समस्तावयव-अवच्छेवेन चक्षुः संमिकर्ष का सम्भव ही नहीं है। पनि समस्त मपयों से नहीं फिन्तु प्रसिनियत प्रवयवों से अमिछन्न अर्थात संमुखवता यावययवावनियाबरयो में घनःसं निकर्ष से परिमाणगत हस्तस्यादि जाति का प्रत्यक्ष माना जायगा तो अषयमी में प्रतिनियतसमलवाती सत्तयों के सम्बन्ध के अवमास के साप अपयपी में एकावय-दूधवषयाविर में परिमाणभेद का भी प्रश्वमास म्यों माना जाय !! पोंकि चित्रप्रतिमास से युक्त अर्यात परिणाममेव के साथ उसम्ममान का ही पुक्तिसङ्गत है। क्योंकि दृश्यमान अन्यम से अतिरिक्त प्रत्यय का उस अवषो में से विभाग हो जाने पर भी उसी परिमाण से युक्त हो यदि अवयवी का दर्शन होता है सो परिमापा दृश्यमान प्रययन में असत्य अबयय का संयोग रहने के समय दोशता था। स्पष्ट है कि यह बास तभी सम्भव हो सकती है जब अब 4waraswati ना जाप क्योंकि पार पचनी सपा सायात भिन्न होगा तो अयमान अवयव का दृश्यमान अवयव से विमाग हो जाने पर अवयवी का नाश हो जाने से पूर्व परिमाण नहीं रह जायगा। प्रतः उस समय पूर्व परिमाण से विशिष्ट अच्यघी का पर्शन नहीं हो सकता। [ अन्य दून्य के दर्शन से भेद की सिद्धि दर है ] यदि यह पाहा जाय कि-'पदश्यमान प्रधषय का विभाग हो जाने पर पूर्व परिमाण तथा सयुक्तमूर्यव्रम्य का दर्शन नहीं होता किन्तु पूर्वपरिमाणापेक्षया अल्पपरिमाणशाली शमय तथ्य का ही दान होता है तो इससे प्रथमवी और अयाच के परस्पर श्रात्यन्तिकमेव को मिति हो सकतो, क्योंकि महायमान अवयव के विभाग के पूर्व भी सो अवषधी विखता है वह दृश्यमाम और प्रदृश्यमात्र रषयमसमूहात्मक यदि अवयवो से अन्य ही होता है। क्योंकि मनेकास्मक एकवस्तु का ही अस्तित्व प्रामाणिक है । रवि यह कहा जाय कि - पटावि असपषी को मवयवोद से अनेक माना जायगा तो इसमें एकत्व की अमुपपत्ति होगी-तो यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बोष अनेकत्व और एकरप में विरोष माननेवाले प्रतिरिक्त अवघवीवादी को ही हो सकता है। * पालभात्र यंगत वैशेषिक शास्त्रीय ग्रन्थ का नाम न्याय लीलावती है ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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