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[ शास्त्रवासिलो० ३१
है। कई स्थलों में 'एकगुणकाल:' 'दशगुणकालः' कहते हुए गुण शम्ब से भी भगवान की देशना प्राप्त है किन्तु वहां गुण शब्द का प्रयोग संख्याशास्त्र में उक्त एक गुना, दो गुना इत्यादि धर्म के अर्थ में है न कि गुणाथिक नय का प्रतिपादन करने की दृष्टि से गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। विभिन्न मूल व्याकरणी अर्थात भिन्नधर्ममूलकप्रतिपादन करने वाले नय द्वारा जिस रूप से वस्तु का ग्रहण होता है उसी रूप से विभाग मान्य है, अन्य रूप से विभाग सम्प्रदाय से विरुद्ध है [द्र० सम्मति० गाथा-३] इसीलिए "गुण-पर्यायवत द्रव्यम्' इस सूत्र में 'गुण और पर्याय' पब से क्रम से एक काल में होने वाले तथा काल क्रम से होने वाले पर्याय विशेष का प्रतिपावन होने पर भी द्रव्य गुण पर्याय तीन श्रेणियों में वस्तु का सामान्य विभाग नहीं किया गया है। तदिदमाहुः--[ सम्मति० ३ काण्डे-गाथा -१५ ]
* रूब-रस-गंध-फासा असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा । तम्हा दव्यागुगया गुण ति ते केड़ इच्छति । ८॥ दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छे । कि पज्जवाहिओ होज्ज पञ्जवे चेव गुणसण्णा ।। || दो पुण नया भगवया दव्य द्विअ-पज्जाद्वआ णिंअया । एत्तो अ गुणविसेसे गुणट्टिअणओ वि जुज्जतो ॥१०॥ जं च पुण अरहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोअमाईणं । पज्जवसण्णा णिअमा वागरिआ तेण पज्जाया ॥ ११ ॥ परिंगमणं पज्जाओ अणेगकरण गुण त्ति तुल्लट्ठा । तहवि न गुण ति भण्णइ पज्जवणयदेसणा जम्हा ॥ १२ ॥ जंपति अस्थि समए एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो। रूवाईपरिणामो भन्नइ तम्हा गुणबिसेसो ॥ १३ ॥ गुणमद्दमन्तरेण वि तं तु पन्जयविसेससंखाणं । सिज्झइ, वरं संखाणासस्थधम्मो 'तइगुणो' ति ॥ १४ ॥
*.प.२ स-गंध-स्पर्शा असमान ग्रहण लक्षणा यस्मात् । तस्माद् द्रध्यानुगत गुणा इति ते केचिदिच्छन्ति '१८ दूरे तावदन्यत्वं गुणशब्द एव तावत्पाराक्ष्यम् । कि पर्यवाधिको भवेतु पर्थय एव गुण संज्ञा ।।९।
द्वो पुनर्नयो भगवता द्रव्या स्तिक-पर्याययास्तिको नियती ।
एताभ्यां च गुणविशेषे गुणास्तिकानयोऽपि अयोक्ष्य त् ।।१०।। यच्च पुनरर्हता तेषु तेषु सूत्रेधू गौतमादीनाम् । पर्यवसंज्ञा नियमाद् व्या कृता तेन पर्यायाः ॥११॥ परिगमनं पर्यायोऽनेककरणं गुण इति तुल्यायौं । तथापि न गुण इति भण्यते पर्यवनयदेशना यस्मात् ।।१२ अल्पनत्यस्ति समय एक गुणो दशगुणोऽनन्त गुणः । रूपादिपरिणामो भव्यते तस्माद् गुणविशेषः ।।१३।। गुणशब्दमन्तरेणापि तत्तु पर्यविशेषसंख्यानम् । सिध्यति. नवरं संख्यानशास्त्रधर्मो तति गुण इति ॥१४॥