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________________ स्या० क. टोका एवं हिन्यो विवेचन । उक्तमेव स्पष्टयबाहमूलम्-अन्वया व्यतिरेकश्च द्रव्यपर्यायसंज्ञितौ । ___अन्योन्यव्याप्तितो भेदाभेदवत्यैव वस्तु तौ॥ ३१ ॥ अन्वयो व्यतिरेकश्चेत्येतावंशी द्रव्य-पर्यायसंज्ञितो-'द्रव्यं' 'पर्यायश्चेति द्रव्यपर्यायपदबाच्यौ । एतेन 'द्रव्यं, गुणाः, पर्यायाश्च' इति विभागः केपाश्चिदनभित्रस्वयूथ्याना परयूथ्यानां वा निरस्तः, विभिन्न नयग्राह्याभ्यां द्रव्यपर्यायत्याभ्यामेव विभागात । यदि च गुणोऽप्यतिरिक्तः स्यात् तदा तद्ग्रहार्थं द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिकवद् गुणाथिकनयमपि भगवानुपादेक्ष्यत् , न चैवनस्ति, रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानाम हता तेषु तेषु सूत्रेषु “वण्णपज्जवेहि." इत्यादिना पर्यायसंज्ञयैव नियमनात् । 'गुण एव तत्र पर्यायशब्देनोक्त' इति चेत् ? नन्वेवं गुणपर्यायशब्दयोरेकार्थत्वेऽपि पर्यायशब्देनैव भगवतो देशना, इति न गुणशब्देन पर्यायस्य तदतिरिक्तस्य या गुणस्य विभागो। चत्यम् । “एकगुणकाल:-दशगुणकालः' इत्यादौ गुणशब्देनापि भगवतो देशनाऽस्त्येव" इति चेत् ? अस्त्येव संख्यानशास्त्रधर्मवाचकगुणशब्देन, न तु गुणाथिकनयप्रतिपादनाभिप्रायेण । येन च रूपेण विभिन्नमूलव्याकरणि(णी)नयग्राह्यता तेनैव रूपेण विभागः, अन्यथाविभागस्व संप्रदायविरुद्धत्वात् । अत एव "गुणपर्यायवद् द्रव्यम्" इति सूत्रे गुण-पर्यायपदाभ्यां युगपद-ऽयुगपद्भाविपर्याय विशेषोपादानेऽपि न वैविध्येन सामान्यविभाग इति तत्त्वम् । [ द्रव्य-गुण-पर्याय के विभाग की समीक्षा ] कारिका ३१ में पूर्व कारिका में कथित् अर्थ को स्पष्ट किया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अन्वय प्रौर म्यसिरेक वस्तु के इन दोनों अंशों की क्रम से द्रव्य और पर्याय ये दो संज्ञायें हैं । अर्थात द्रव्य और पर्याय रूप वस्तु के अंश क्रमशः 'द्रव्य' और 'पर्याय' शब्द के वाध्य हैं । इस कथन से, अपने समुदाय के अनभिज्ञों (दिगम्बरों) द्वारा और अन्य समुदाय के सदस्यों द्वारा किया गया यह विभाग कि 'वस्तु के तीन भेद हैं, द्रव्य, गुरण और पर्याय,' खण्डित हो जाता है। क्योंकि विभिन्न नयों द्वारा द्रव्य और पर्याय का ही ग्रहण होता है, अतः द्रव्य और पर्याय इन दोनों श्रेणियों में ही वस्त का विभाग उचित है। यदि गुण भी अतिरिक्त पदार्थ होता तो भगवान ने उसके ग्रहण के लिए गुणार्थिक नय का भी टीक उसी तरह उपदेश किया होता जसे द्रव्य के ग्रहण के लिए व्याथिक नय का एवं पर्याय के ग्रहण के लिए पर्यायाथिक नय का उपवेश किया है, किन्तु भगवान ने गणाथिक नय का उपवेश नहीं किया है. विभिन्न सूत्रों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को प्रर्हत् भगवान ने उन उन सूत्रों में ''वष्णपज्जेवेहि" इत्यादि शवों द्वारा पर्याय संज्ञा से ही प्रतिपादन किया है। उक्त प्रवधनों में पर्याय शब्द से गुरग का हो कयन किया गया है, यह शफा नहीं की जा सकती क्योंकि गुण और पर्याय शश्व के समानार्थक होने पर भी भगवान ने पर्याय शब्द से ही पर्याय की वेशना को है न कि गुण शब्द से देशना की है। प्रतः पर्याय से अतिरिक्त गुण का विभाग उचित नहीं
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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