________________
२०२
[शास्त्रमा स्त०७श्लो. ३.
माल होता है यह मास में गोमाराम है दूसरी बात यह है कि 'न पृथक' इस प्रकार की प्रतीति सर्वत्र एकाकार होती है । अतः उसमें विषय बलमण्य नहीं माना जा सकेगा।
नन्वेवं क्षीर-नीरयोरपृथक्त्वादभेदः स्यादिति चेत् ? किं न स्यात् ? 'स्वरूप सांकर्यादिति चेत् ? न, अनेकान्ते यथादर्शनं संकीर्णा-संकीर्णोभयरूपतोपपत्तेः, स्वभावभेदं विना संबन्धसंकरस्याप्यसंभवात् । यद्येवम् , अविभक्तयोः क्षीरनीरयोरपृथक्त्वमेव, तर्हि हंसचञ्चुविभक्तयोरपि तयोः पृथक्त्वं न स्यात् । इति चेत् ? न, विभागे पृथक्त्यस्येवोपपत्तेद्रव्याऽविच्छेदेऽपि पर्यायविच्छेदात् । यदि चैवमनुभवसिद्धमपि तन्तु-पटादीनामपृथक्त्वं प्रतिक्षिप्यते, तदा घटादावपि किं मानम् ! । यश्चैतदोषभीतोऽवयवा-ऽवयविनोः स्वतन्त्रावेव भेदाऽमेदौस्वीकरोति, तस्यापि पटैकदेशोऽपटः पटश्चेत्यवक्तव्यः स्यात् । तस्माद् 'न समुद्रोऽयं नाप्यसमुद्रः किन्तु समुद्रैकदेशः' इतिश्त , 'नायं पटो नाऽप्यपटः किन्तु पटेफदेशः' इति व्यवहारनिर्वाहाथ परस्पराऽविनिर्भागवृत्यन्वय-व्यतिरेकवदेव स्वीकर्तव्यमिति स्थितम् ॥३०॥
[ क्षीर-नीर के अभेद की आपत्ति का प्रत्युत्तर ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त रोति से पृथक्त्व से भेब और अपृथक्त्व से प्रभेद स्वीकार करने पर क्षीर-दूध और नोर=पानो में भी अपथक्त्व होने से उनमें अभेद की आपत्ति होगी। इस आपत्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे स्वीकार करने पर दोनों के स्वरूप में सक्रिय हो जायगा, अर्थात् क्षीर नीररूप हो जायगा और नोर क्षीररूप हो जायगा।'-किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद में बस्तु के सम्बन्ध में जो मान्यता है उसके अनुसार वस्तु में संकीर्ण असंकीर्ण उभयरूपता की उपपत्ति होती है। क्योंकि वस्तुओं में यदि केवल असंकीर्णता हो मानी जायगी तो उनके स्वभाव में भेद न होने से उनमें सम्बन्ध का भी सांकर्य अर्थात् एक के साथ दूसरे का सम्बन्ध भी सम्भव न होगा। यदि यह कहा जाय कि-'अविभक्त क्षीर और नीर में अपृथवत्व ही है तो इंस के चोंच से क्षीर और नीरका विभाग हो जाने पर भी उनमें अपयक्त्व क्यों न होगा'. तो ठीक नहीं है क्योंकि और और नीर के विभागकाल में उनमें पथवत्व की ही उत्पत्ति होती है। विभाग काल में यद्यपि उनके मूल द्रव्य में भेद नहीं होता किन्तु पर्याय में भेद होता है। उक्त प्रकार की मान्यता के सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-'तन्तु पट आदि में अपथरव को हम नहीं मानते हैं-तो यह ठीक नहीं क्योंकि अनुभव सिद्ध होने पर भी यदि उसका प्रतिबंध किया जायगा तो घट
आदि के अस्तित्व में भी कोई प्रमाण न हो सकेगा। इस दोष के भय से जो अवयव और अवययो में स्वतन्त्रभेद और अभेद स्वीकार करते हैं उनके मत में भी पट का एक देश अपट अथवा पदरूप में अवक्तव्य हो जाता है। इसलिए यही कहना उचित होगा कि जैसे समुद्र के एक वेश में यह व्यवहार होता है कि-'न तो यह समुद्र है और न असमुद्र ही है किन्तु समुद्र का एक देशा है उसी प्रकार पट के एक देश में भी 'न तो यह पर है और न अपट ही है किन्तु पट का एक देश है' इस व्यवहार की उपपत्ति के लिए यह मानना होगा कि वस्तु परस्पर में अविभक्त होकर रहने वाले अन्वय व्यतिरेक मेवामेद से शबल ही होती है ।।३०॥
हना