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________________ स्या.क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २.१ ही ग्राहक होता है उसके एक वेश का नहीं अत: नोजीय और नोग्रीव में पर्यनिषेध का ही आश्रय करता है। इससे अधिक यवि जिज्ञासा हो तो उसके लिये पू० उपा० विरचित 'नयरहस्य' ग्रन्थ (पृ०१८५) का अवलोकन करना चाहिए। एतेन 'अन्वयादिमयत्वे वस्तुनो घटदेशो 'न घटो नाप्यघट' इत्यवक्तव्यः स्यात् इति प्रावादुकोक्तिनिरस्ता। घटपदस्य स्कन्धवृत्तिल्वे तत्र 'अघटः' इत्येवोक्तः, “यथा न खण्डं चक्र सकलं चक्रम् , तथा न धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो धर्मास्तिकायः" इति प्ररचनवचनात् । देशकृत्तित्वे च 'नोघटः' इत्येवोक्तेः, लद्देशत्वे सति तद्देशाभावस्य नोपदार्थत्वादिति । एकान्ततिमिरविलुप्तदशां त्वत्राथै महानेयान्धकारः । तथाहि-प्रतीयते तावदयं तन्त्यादिने पटादेः पृथगिति सरविगानेन । तथा च तत्र पटावधिकपृथक्त्वाभाववद् द्रव्यत्वात् पटभेदाभावोऽप्यावश्यकः । न च तत्रान्यादृशमेवाऽपथक्वं प्रतीयते, न तु पृथक्त्वाभावरूपम् , भिन्नयोद्रेव्ययोरपृथक्त्वाऽयोगादिति वाच्यम् , तयो दसिद्धायुक्तप्रतीतौ मुख्यपृथक्त्वाभावानवगाहिखसिद्धिः, तसिौं च तयोर्भदसिद्भिः, अन्यथा भेदधियस्तद्धियैब वाधनादित्यन्योन्याश्रयात् ,न पृथग' इति प्रतीतेः सर्वत्रैकाकारत्वेन विषयलक्षण्याऽयोगाच्च । [घट के एक देश में अबक्तव्यत्र शंका का निवारण ] इस संवर्भ में कुछ वावक विद्वानों का यह कथन फि-वस्तुओं को प्रत्यय व्यतिरेक-भेदामेव उभयात्मक मानने पर घट का एक देश 'घट और अघद' दोनों में से एक भी न होने से अवक्तव्य हो जायेगा' स्वतः निरस्त हो जाता है । क्योंकि अब घट पर स्कन्ध में प्रयुक्त होता है तब उसे अघट ही कहा जाता है, क्योंकि प्रवचन को यह उक्ति है कि जैसे खण्ड मात्र (एक देश मात्र) चक्र सम्पूर्ण धक नहीं होता है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय का एकावि प्रवेश धर्मास्तिकाय नहीं होता । और जन्न घट पद देश मेंप्रयुक्त होता है तब 'नोघटः' यही कहा जाता है क्योंकि तदवस्तु के एकदेशरूप होना और एकदेशरूप न होना यही नो पद का अर्थ होता है । जिन लोगों की दृष्टि एकान्तवाद के तिमिर से प्राकान्त है उनके सामने इस विषय में महान अन्धकार हो होता है, क्योंकि समो लोग एकमत में स्वीकार करते हैं कि पट आदि स्थल में दिखायी पड़ने वाले तन्तुप्रादि पद प्रादि से पृयक नहीं है । तो फिर जब ऐसा है तो द्रव्यात्मक होने के कारण तन्तु में पटायधिक पृथक्त्व के अभाव का आश्रय होने से, उसे पट मेद के अभाव का आश्रय भी मानना आवश्यक है । यदि यह कहा जाय फ्रि-तन्तु में पट का जो अपृयवत्व प्रतीत होता है वह पृथक्त्याभाव रूप नहीं है किन्तु उससे भिन्न प्रकार का है, क्योंकि भिन्न दो द्रव्यों में अपथक्त्व नहीं हो सकता-तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष के कारण यह ठीक नहीं है क्योंकि तन्तु और पट मे भेद सिद्ध हो जाने पर 'पट में दीख पड़ने वाला तन्तु पट से पथक नहीं है' इस प्रतीति में मुख्य पृथक्त्वाभाव का अवगाहन न होना सिद्ध हो सकता है, और उक्त प्रतीति में मुख्यपृथक्त्वाभाव का अवगाहन नहीं होता' यह सिद्ध होने पर ही उन दोनों में भेद की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि ऐसा न मानने पर उक प्रतीति से ही भेदबुद्धि का बाध हो जायगा । इस लिए उक्त प्रतीति में पृथक्त्वाभाव का भान न होकर अन्य प्रकार के अपृथक्त्व का
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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