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[शास्त्रवास्ति०७ श्लो० २४
क्योंकि एकान्तवादी प्रत्येक वस्तु को एकरूपात्मक ही मानता है. अत एव हेतु को त्रिरूपात्मक होने के आधार पर अनुमापक और त्रिरूपात्मकता का निश्चय न होने के आधार पर अननुमापक नहीं कहा जा सकता।
किच, परस्य स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाऽनतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यसाध्याभाववदत्तित्व-साध्यसंबन्धितावच्छेदकरूपवत्यादिव्याप्तीनां नानात्वात साधने साध्यच्याप्यस्वमपि दुग्रहम् । न च सर्वासामपि वह्निनिरूपितव्यासीनां प्रत्येकं वह्वयनुमित्यङ्गत्वमेव, कार्यतावच्छेदके तत्तदव्यवहितोत्तरत्यादिदानाच्च न व्यभिचार इति वाच्यम् , अनुगत हेतु-हेतुमद्भाव विनाऽनुमतव्यवहारप्रवृत्त्याउनुपपत्तेः, अनुमितिजनकतावच्छेदकतया सिद्धाया एकस्या एव व्याप्तेः प्रतिस्त्र विभज्यानुभवाद् भेदमिश्रितत्वस्वीकारीचित्पात् । एवं रिशिष्य तत्तद्धर्मावच्छिन्नकारणताश्रयेऽपि तत्तद्धर्मसामानाधिकरण्येन सामान्यकारणताव्यपदेशसमर्थनमपि परेषां शब्दान्तरेण सामान्यविशेषभावमेव वस्तुनो द्रढयति, अपिताऽनपितसिद्धः, इति द्रष्टव्यम् , “यत्सामान्ये यत्सामान्य हेतुस्तद्विशेष तद्विशेषोऽपि" इति न्यायोपपत्तेः, आर्थन्यायेन भावेनाऽप्रधानगुणभावयोगाच्चेति ।
[ त्रिरूपवत्ता एकान्तवाद में मानने पर भी अनिस्तार ] उक्त के सन्दर्भ में यदि यह कहा जाय कि-एकान्तवाद में हेतु में निरूपात्मकता तो नहीं मानी जा सकती किन्तु उसे त्रिरूप से युक्त मानने में कोई बाधा नहीं है, अतः उस मत के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि तत्पुत्रत्व आदि में वस्तु को अनेकान्तता की अनुमापकता के प्रयोजक उक्त त्रिरूप से युक्तता का निश्चय न होने के कारण तत्पुरत्व आदि में अनेकान्त को अनुमापकता का प्रभाव हो सकता है तो इस कथन के सम्भव होने पर भी अन्य दोष का परिहार होना सम्भव नहीं है और वह दोष है हेतु में साध्य की व्याप्ति के ज्ञान का
। आशय यह है कि एकान्तवादी के मत में व्याप्ति के अनेक भेद हैं। जैमे-(२) हेत के अधिकरण में विद्यमान अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगी साध्य का हेतुनिष्ठ सामानाधिकरण्य एवं (२) हेतु में साध्याभावाधिकरण निरूपित वृत्तित्व का अभाव, तथा (३) साध्यसम्बन्धिता का अवच्छेदक हेतुता अवच्छेदक रूपबत्त्य ... प्रादि । इन सभी का एककाल में जान सम्भावित न होने से हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान न हो सकने के कारण व्याप्तिज्ञान से अनुमिति के जन्म का उपपादन नहीं किया जा सकता।
[व्यक्तिनिष्टकार्य-कारणभाव से अनुमितित्वनियामक शून्यता] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त प्रकार कि वह्नि निरूपित जितनी ध्याप्तियां हैं उनमें प्रत्येक व्याप्ति स्वतन्त्ररूप से वह्नि की अनुमिति को प्रयोजक हैं अर्थात् उक्त व्याप्तियों में किसी भी एक व्याप्ति का ज्ञान होने से अनभिति का जन्म मानना निरापद है, क्योंकि यद्वि की अनुमिति में प्रत्येक व्याप्तिज्ञान को स्वतन्त्ररूप से कारण मानने पर प्रमिति और ध्याप्तिजान में कार्यकारणभाव के सम्भावित व्यतिरेक व्यभिचार का परिहार तत्तयाप्तिज्ञान को तत्तद्व्याप्तिज्ञानाव्यवहितोत्तर