SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्या क० टीका एवं हिन्दी धियेचार ] अनेकान्तरूपता के अनुमापकत्व की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'वस्तु में एकान्तरूपता के साधक हेतु के होने से तत्पुत्रत्व प्रादि प्रकरणसम पानी सत-प्रतिपक्ष एवं अनेकान्तरूपता का बाघ होने से कालात्ययापदिष्ट होगा, अत एव तत्पुत्रस्व आदि में अनुमापकता का बाध हो जायगा -तो यह उचित नहीं है क्योंकि हेतुत्य के सम्पादक पक्षसत्त्व, सपक्षसत्व और विपक्षासत्त्व का विघटक हो हेत्वाभास होता है । प्रकरणसम और कालात्यापदिष्ट उक्त रूपों में से किसी के विघटक नहीं हैं अत एव हेत्वाभास न होने के कारण उनसे अनुमापकता का बाध नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'साध्य के धर्मों यानी पक्ष में साध्यबदि का उक्त दोनों में विघटन होता है अत एव वे भी हेरवाभास हैं, क्योंकि जैसे तत्व के सम्पादन उक्त रूपों का जिनके द्वारा विघटन होता है वे मी अन्ततः साध्यधर्मी में साध्यबद्धि के विरोध में ही पर्यवसायी होने से हत्याभास होते हैं । अतः साध्यधर्मों में साध्यबुद्धि के साक्षात् विरोधी प्रकरणसम और कालात्ययापोबष्ट का भी हेत्वाभास होना युक्तिसंगत है। इसलिए उनके द्वारा तत्पुत्रस्व आदि में अनेकान्तरूपता की अनुमापकता का बाप हो सकता है तो यह ठोक नहीं है क्योंकि साध्य के अविनामृत यानी व्याप्यरूप में निश्चित हेतु का पक्ष में जो उपलम्भ अर्थात बोध होता है वही साध्यधर्मों में साध्य की बुद्धि है और उक्त बोध में प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट विरोधी नहीं हो सकते, क्योंकि प्रकरणसम पक्ष साध्याभावच्याप्यप्रकारक निश्वय द्वारा सथा कालात्ययापदिष्ट साध्याभाव प्रकारक निश्चय द्वारा पक्ष में साध्यप्रकारक बोध के ही विरोधी हो सकते हैं न कि साध्य व्याप्य हेतु प्रकारक बुद्धि के विरोधी हो "सकते हैं । अतः उक्त रीति से उन्हें हेत्वाभास बताना संगत नहीं हो सकता। [ अनेकान्तवादरूपता की अनुमापकता का समान रूप से अभाव नहीं है ] यदि यह शंका की जाय कि-'जसे अनेकान्तधादी के मत में तत्पुत्रस्व आदि एकान्तरूपता का अनुमापक नहीं हो सकता, उसी प्रकार एकान्तवाली के मत में वह अनेकान्तरूपता का भी अनुमापक नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनेकान्तबादी के मत में तत्पुत्रत्व प्रादि को एकान्तरूपता का अनुमापक न होने का कारण है 'उसमें अनुमापकता के प्रयोजक त्रिरूपता के निश्चय का प्रभाव' जिसे एकान्तबादी के भत में अनेकान्त-अनुमापरता के अभाव के कारणरूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, क्योंकि एकान्तबाद में अनुमापक को निरूपात्मकता मान्य नहीं हो सकती । अनेकान्तबादी के कथन का प्राशय यह है कि जो त पक्ष सत्व सपक्ष सत्त्व और विपक्षासत्त्व इन तीनों रूपों से अभिन्न होता है वही अनुमापक होता है और यह त्रिरूपता साघम्य, बंधयं के परस्पर स्वरूप का प्राक्षेप जिस धर्मों में होता है उस पक्षभूत धर्मी में अजहदवृत्ति तथा साधर्म्य और बंधयं के स्वभाव से होती है, तात्पर्य यह है कि पक्ष में सपक्ष के साधर्म्य से विपक्ष के वैधस्य का और विपक्ष के वैवयं से सपक्ष के साधम्यं का आक्षेप होता है, हेतु उसमें अजहदवृत्ति-वृत्ति का त्याग न करने से पक्षसत्त्वात्मक होता है एवं साधर्म्यस्वभाव होने से सपक्षसत्त्वात्मक तथा वैधर्म्यस्वभाव होने से विपक्षासत्वात्मक होता है । इस प्रकार त्रिरूपात्मक हेलु ही साध्य का अनुमापक होता है । तत्पुत्रत्व श्रादि में निश्चित एकालरूप सपक्ष को सामरूपता एव निश्चित अनेकान्तरूप विपक्ष को वैधम्यरूपता तथा उन दोनों के परस्पर स्वरूप जिसमें आक्षिप्त हों ऐसे वस्तु रूप पक्ष में अजहदवृत्तिता न होने से विरूपता का निश्चय न होने के कारण उसमें एकान्त की अनुमापकता का प्रभाव होता है । यही बात तत्पुत्रत्व प्रादि में अनेकान्तरूपता के अनुमापकत्व का अभाव बताने में नहीं कही जा सकती,
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy