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________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ज्ञान के प्रति कारण मान कर किया जा सकता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनुमिति और व्याप्तिज्ञान में उक्त रूप से कार्यकारणभाव मानने पर उनके बीच प्रनुगत कार्यकारणभाव नहीं होगा ! फलतः तत्तद्व्याप्तिज्ञान से उत्पन्न होने वाले ज्ञान में अनुमिति पद का अनुगत व्यवहार नहीं हो सकेगा। क्योंकि उक्त रूप से अनुगत कार्यकारणभाव न होने पर अनुमितित्व का कोई नियामक न हो सकेगा । यतः उक्त व्याप्तियों में किसी एक व्याप्ति के ज्ञान से अन्य (ज्ञाननिष्ठ) ज्ञानस्व को अनुमितित्व का नियामक मानने पर अन्य व्याप्ति के ज्ञान से जन्यज्ञान अनुमितिरूप न हो सकेगा और यदि प्रत्येक व्याप्तिज्ञानजन्यज्ञानस्व को समुदित रूप से अनुमितित्व का नियामक माना जायमा तो किसी मी ज्ञान में सम्पूर्ण व्याप्तिज्ञानजन्यज्ञानत्व न होने से कोई भी ज्ञान अनुमितिरूप न हो सकेगा । अतः उक्त प्रनुपपत्ति को देखते हुए यही स्वीकार करना उचित है कि अनुमिति के प्रति व्याप्तिज्ञान कारण है और एक ही व्याप्ति उस कारणता की ग्रवच्छेदक है, उसी का व्याप्ति के उक्तरूपों में कभी किसी स्वरूप और कभी किसी अन्य रूप से अनुभव होता है। उक्त सभी व्याप्तियों में व्याप्तिस्वरूप एक सामान्य धर्म है उसी रूप से व्याप्ति का ज्ञान अनुमिति सामान्य के प्रति कारण है। इस कारण व्याप्ति एकान्तरूप से एक प्रथवा अनेक न होकर मेवमिश्रित अभिन्नत्व ( अभेद ) रूप अर्थात् अनेकान्त रूप है । १८३ [ एकान्तवादी की मान्यता से अनेकान्त को समर्थन | इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि एकान्तवाद में सामान्य कार्यकारणभाव का समर्थन इस रूप में किया जाता है कि 'सामान्य धर्म के आश्रयभूत कार्यविशेष की सामान्यधर्म के श्राश्रयभूत कारण विशेष में जो विशेष धर्माच्छित कार्यनिरूपित विशेष धर्मावच्छिन्न कारणता है वही सामान्य कार्यकारणता के रूप में व्यवहुत होती हैं इससे भी वस्तु को सामान्यविशेषात्मक रूप से अनेकान्तरूपा की ही पुष्टि होती है। यह भी ज्ञातव्य है कि वस्तु में सामान्यविशेष उपयरूपता के अभाव यद्यपि अतः यह प्राप्त होता है कि वस्तु में प्रधानगुणभाव नहीं हो सकता किन्तु सामान्यरूप से जिन वस्तुओं में कार्यकारणभाव होता है, विशेषरूप से भी उनमें कार्यकारणभाव होता आवश्यक है' यह न्याय अवश्य स्वीकार्य है क्योंकि इसे न मानने पर सामान्यकार्यकरण के आधार पर ही विशेषकारण से विशेष कार्य की उत्पत्ति माननी होगी और उस स्थिति में जिन वो कपालों से एक घट की उत्पत्ति होती है उन्हीं से अन्य घट की उस घट के साथ ही उत्पत्ति का प्रसंग होगा । प्रतः घट सामान्य के प्रति कपाल सामान्य कारण है इस कार्यकारणभाव के साथ ही तत्तद्घट के प्रति तत्तत्कपाल कारण है यह कार्यकारणभाव भी मानना आवश्यक है और यह तभी हो सकता है जब वस्तु सामान्य विशेष उभयात्मक हो । और जब वस्तु उस प्रकार की होगी तो उसमें प्रधानगुणभाव भी बिना किसी कठिनाई के उपपन्न हो सकेगा । I किञ्च, परः साध्यं साधयन् न तावत् सामान्यं साधयेत्, केवलस्य तस्यासंभवात् । नापि विशेषम् तस्याननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात् । न च सामान्योपरागेण विशेषस्याप्यनुयायित्वम्, समवायनिषेधेन तदुपरागाऽसिद्धेः 'पर्वतो जातिमद्वान्' इत्यादावतिप्रसङ्गाच । नाप्युभयम् उभचदोषाऽनतिवृत्तेः । नाप्यनुभयम्, तस्याऽसत्त्वात् इत्याद्ययम् । तदिदमुक्तम्[ सम्मति - १५३ ]
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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