________________
[ शास्त्रवा० स्त०७ श्लो० २४
* "साहम्मओ ब्व अत्थं साहिज्ज परो बिहम्मो बाबि ।
अमोन्नं पडिकुठा दो नि अ एए असव्याया ॥ १ ॥ इति । अनेकान्ते तु न साध्यसिद्धिरनुपपन्ना, कथञ्चिद् वह्निमत्तायाः साध्यत्वेन 'पर्वतो द्रव्यवान् इत्यादावनतिप्रसङ्गात् , बहिमत्ताया द्रव्यवत्तासामान्यक्रोडीकृतत्वेऽपि कञ्चिदतिरेकात , विवादास्पदीभूतसामान्य-विशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारसाध्यवमिसिद्धेश्व; अन्यथा 'पर्वतसामान्य घहिमत्तयाऽनुमिनोमि' 'इमं पर्वतं वद्धिमत्तयाऽनुमिनोमि' इत्यादि विभज्याध्यवसायाकारानुपपत्तेः, इतरत्र संशयाऽनिवृत्तिप्रसङ्गाच्च । इत्यन्यत्र विस्तरः । तदिदमाह- सम्मति गाथा-१५४ ]
x दवडिअवत्तव्यं सामण्णं पञ्जवस्स य विसेसो।
एए समोवणीया विभजवायं विसेसंति ॥१॥ इति । तदेवं 'स्याद्वादिनो न क्वचिदपि निथयो युज्यते' इति पूर्वपक्षिणोक्तं निराकृतम् ॥२४॥
[एकान्तवाद में साध्यस्वरूप का निर्वचन अशक्य ] उक्त के अतिरिक्त एकान्तवाद में एक और भी संकट है, वह यह कि एकान्तवाद में साध्य के स्वरूप का निर्वचन प्रमादा कोंकि य के सा नहीं कहा जा सकता यतः विशेष के अभाव में केवल सामान्य का अस्तित्व नहीं होता। विशेष को भी साध्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि साध्य को साध्यधर्मो-पक्ष और सिद्धधर्मी दृष्टान्त उभय में अनुगत होना चाहिए, किन्तु विशेष ऐसा नहीं होता। स्पष्ट है कि पर्वतीय वह्नि का सम्बन्ध महानस में और महानसीय वह्नि का सम्बन्ध पर्वत में नहीं होता।
[ अनुगतरूपता की शंका का निराकरण ] विशेष की साध्यता के समर्थन में यदि यह कहा जाय कि-विशेष व्यक्तिगत रूप से पक्ष, दृष्टान्त उभय में भले अनुगत न हो किन्तु सामान्य रूप से उसके अनुगत होने में कोई बाधा नहीं है यत: पर्वतीय और महानसीय वह्नियों में बालित्व सामान्य का अस्तित्व होने से यह कहना दुष्कर है कि महानसीय पति के सामान्य रूप का पक्तीय वह्नि में और पर्वतीय वह्नि के सामान्य रूप का महानसीय वह्नि में प्रभाव है। अत: वह्निविशेष को वह्नित्व रूप सामान्य धर्म द्वारा पक्ष-दृष्टान्त दोनों में अनुगत कहा जा सकता है
किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यतः समवाय सम्बन्ध प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हो पाता अतः विशेष व्यक्तियों में सामान्य धर्म का उपराग (सम्बन्ध) सिद्ध नहीं हो सकता है। इसके साथ ही इस कथन में कि- 'सामान्य रूप से विशेष अनुगत होने से विशेष भी साध्य हो सकता है-यह आपत्ति है कि उक्त बात को स्वीकार करने पर जातित्व रूप में वह्नित्व को विषय करने वाली 'पर्वतः जातिमद्वान्' अनुमिति भी 'पर्वतो वह्निमान' इस रूप में ध्यवहुत होने लगेगी। जैसे उक्त कारणों से केवल सामान्य * साधम्यतो वाऽयं साधयेत् परो वैधय॑तो वाऽपि । अन्योन्यं प्रतिकुठा द्वावपि चैतेऽसद्वादाः ।। X द्रव्याथिका वक्तव्यं सामान्य पर्यवस्य च विशेषः । एती समोपनोती विभज्यवाद विशिष्टः।।