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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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अथवा केवल विशेष को साध्य नहीं माना जा सकता उसी प्रकार दोनों को मिलित रूप में भी साध्य नहीं माना जा सकता क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष को साम्य मानने पर प्रसक्त होने वाले दोष मिलित साध्य के पक्ष में भी ज्यों के त्यों बने रहेंगे। सामान्य विशेष से भिन्न को भी साध्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इस तरह की कोई वस्तु हो नहीं है जो सामान्य और विशेष की श्रेणी से बहिर्भूत हो । यह बात सम्मति ग्रन्की १३ ची गाशा में इस प्रकार हो गयी है "एकान्तवादी साध्य को साधर्म्य से सिद्ध करेगा या वैधम्यं से? दोनों ही अन्योन्य अपहत होने से असद्वाद ही हैं।"
एकान्तवाद में साध्यसिद्धि के सम्बन्ध में जो अनुपपत्ति बतायो गयो है, अनेकान्तबाद में उसको अवसर नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद में कथञ्चित् वह्निमत्ता साध्य होने से 'पर्वतः द्रव्यमान इस अनुमिति में पर्वत: वह्निमान' इस अनुमिति को अभिन्नता का प्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि द्रक्ष्य सामान्य में वह्नि का समावेश होने पर भी यति में द्रव्य का कयश्चित भेद भी रहता है प्रतः जिस अपेक्षा से वह्नि में ट्रध्य का भेद है उस अपेक्षा से 'पर्वतो द्रव्यवान्' इस अनुमिति में 'पर्वतः वह्निमान्' इस प्रकार को अनुमितिरूपता को आपत्ति सम्भव नहीं हो सकती।
[अनेकान्तवाद में साध्यसिद्धि निर्वाध ] अनेकान्तवाद में साध्यसिद्धि की अनुपपत्ति न होने का एक और कारण है वह यह कि अने. कान्तवाद के अनुसार साध्यधर्मो-पक्ष 'सामान्य-विशेष उभयरूप साध्यात्मक धर्म के आश्रयरूप में विवाद का विषय होता है । अतः अनुमान द्वारा उक्त साध्यरूप धर्म के आश्रय रूप में साध्यधर्मों को सिद्धि होती है । इस प्रकार की सिद्धि में उस तरह की कोई बाधा नहीं है जो एकान्तवाद में साध्यसिद्धि के विषद्ध खड़ी होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि अनुमान द्वारा सामान्य विशेष उभयस्वरूप साध्यधर्म के आधाररूप में साध्य-धर्मी की सिद्धिन मानी जायगी तो वह्नि के आश्रयरूप पर्वत सामान्य की अनुमिति की एवं वह्नि के आश्रयरूप में पर्वत विशेष को अनुमिति को जो प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति न हो सकेगी। उक्त उभय प्रतीतियों में किसी एक ही प्रतीति को मानकर यदि किसी एक ही प्रकार की अनुमिति मादी जायगी तो अन्य प्रकार को अनुमिति से निवर्तनीय संशय की निवृत्ति न हो सकेगी। फलतः वह्नि के प्राश्रयरूप में पर्वत सामान्य को अनुमिति होने पर पर्वत विशेष में ह्नि संशय की, तथा पर्वतविशेष में वाह्न की अनुमिति होने पर पर्वत सामान्य में वह्नि संशय की, निवृत्ति न होगी। इस विषय का विस्तार ग्रन्थान्तर में उपलब्ध हो सकता है। यही बात सम्मतिग्रन्थ की १५४ वीं माथा में इस प्रकार कही गयो है -व्यास्तिकनय का वास्य केवल सामान्य है और पर्यायास्तिक का केवल विशेष है। दोनों परस्पर मिलकर विभज्यवाद को विशेषित करते हैं। इस प्रकार 'स्यावावीयों के मत में कहीं भी निश्चय की उपपत्ति नहीं हो सकती' यह पूर्वपक्षी का कथन अपहस्तित हो जाता है ॥ २४॥
इत्थं च 'संसायपि न संसारी' इत्याद्यभ्यर्थतो निरस्तमेव, तथापि विशिष्य तद् निरसितुकामस्तत्र प्रयोजनमाहमूलम्--एतेन सर्वमेवेति यदुक्तं तन्निराकृतम् ।
शिष्यव्युत्पत्तपे किश्चित्तथाप्यपरमुच्यते ॥ २५ ॥