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________________ १८६ [ शास्त्रवार्ता० स्त. ७ श्लो० २५.२६ एतेन अनन्तरोदितेन स्याद्वादसाधनेन सर्वमेव यदुक्तं पूर्वपक्षिणा तद् निराकृतम् , अधिकस्याप्युक्ततुल्ययोगक्षमत्वात् । तथापि शिष्यव्यत्पत्तये प्रपञ्चज्ञशिष्यमतिविस्फारणाय किचिवपरम्=अवशिष्टविषयम् उच्यते ॥ २५ ॥ तथाहि एकान्तबादी द्वार। उद्भावित सभी दोषों का निराकरण | उस रीति से अनेकान्तवाद का प्रतिपावन हो जाने पर उस बाद में एकान्तवावी द्वारा उद्भावित संसारस्थ भी अनेकान्तवाद के अनुसार असंसारी हो जायगा ऐसे सभी दोषों का यद्यपि अर्थतः निराकरण हो जाता है तो भी विशेषरूप से उन दोषों का निराकरण करने के तात्पर्य से उसका प्रयोजन बताने के लिए २५ बों कारिका की रचना की गयी है, जिसका अर्थ यह है कि स्याउवादअनेकान्तवाद का जो प्रतिपावन अभी तत्काल ही किया गया है उससे पूर्वपक्षी एकान्तवादी द्वारा कहे गये सम्पूर्ण दोष निवृत्त हो जाते हैं और जो दोष पूर्व पक्षो द्वारा प्रदर्दाशत नहीं किए गये हैं किन्तु उनका प्रदर्शन भी सम्भव है, उस ओधों धमारी इसका भी योगक्षेम होने से उक्त दोषों की निराकरण को रीति से ही उनका भी निराकरण हो जाता है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ बात भी आवश्यक न होने पर भी विशेष जिज्ञासु शिष्यों की बुधि की वैशद्य और विस्तार के लिये कुछ अन्य बात जो अभी तक नहीं कही गयी है प्रस्तुत सन्दर्भ में कही जायगी ।। २५ ।। मूलम्-संसारी चेत्स एवेति कथं मुक्तस्य संभवः ।। __ मुसोऽपि चेत्स एवेति व्यपदेशोऽनिबन्धनः ॥ २६ ॥ संसारी चेत् स एव संसायेंव, एत्रकार एकान्ते, इति हेतो संसारिणः सर्वथा संसारि. त्वात् , कथं मुक्तस्य संभवः-संसारिण्ययं मुक्त इत्यादिव्यपदेशः? । क्षणभेदस्त्वत्र न परिहारः, सर्वथाऽसारूप्यात् । स्यान्मतमन्येपाम्-'स एव संसारी स एव च मुक्तः, न तु न संसारी न मुक्तश्च, संसारित्व-मुक्तत्वयोः संसारिमुक्तभेदविरोधित्वात् , प्रतियोगितावच्छेदकेन सहान्योन्याभावस्य विरोधे कालभेदाऽनिवेशादिति ।' असदेतात, 'इदानीमयं संसारी न मुक्तः इदानी स मुक्तो न संसारी' इत्यादिव्यवहारात् संसारि-मुक्तयोरसंसार्य-ऽमुक्तयोश्च कालभेदेन विभिन्नतया व्यवस्थितेः । 'विभेदे कथमेकत्रोभयथा व्यवहार' इति चेत् ? सोऽयमेकान्तवादिन एव शिरसि प्रहारः। [ संसारी और असंसारी में अनेकान्त की उपपत्ति ] कारिका २६ में पूर्वकारिका द्वारा किये गये संकेत को स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया गया है जो इस प्रकार है । एकान्तवाद के अनुसार संसारी जीव यदि केवल संसारी ही होगा, असंसारी किसी भी दृष्टि से न होगा तो वह मुक्त कैसे हो सकेगा, कभी भी उसे मुक्त केसे व्यवहृत किया जा सकेगा? क्षणभेद से उसकी मिन्नता स्वीकार करके भी उक्त प्रश्न का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि संसारक्षण में स्थित व्यक्ति और मुक्तक्षण में स्थित व्यक्ति में पूर्णरूप से सारूप्य का अभाव होने से इस प्रकार का व्यवहार न हो सकेगा कि जो पहले संसारी था वह अब मुक्त हो गया।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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