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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
यदि यह कहा जाय कि इस प्रकार का व्यवहार मान्य नहीं है, मान्य केवल यह व्यवहार है कि संसारक्षण में स्थित व्यक्ति केवल संसारी होता है और मुक्तक्षण में स्थित व्यक्ति केवल मुक्त होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह दोनों व्यवहार अन्योन्य सापेक्ष हैं. अतः दोनों व्यवहारों की उपपत्ति किसी एक या सदृश में हो करना उचित है।
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[
दो रूप के समावेश में विरोध की शंका ]
अन्य विद्वानों का यह मत हो सकता है कि- संसारी और मुक्त एक हो व्यक्ति होता है, समय मेद से एक व्यक्ति में संसारित्व और मुक्तत्व का समावेश सर्वथा युक्तिसंगत है । संसारी और मुक्त के लिए यह कहना कथमपि सम्भव नहीं है कि यह संसारी भी होता है और संसारी नहीं मो होता है, यह मुक्त भी होता है और मुक्त नहीं भी होता है, क्योंकि संसारित्व संसारी मेद का और मुक्तत्व मुक्तभेव का विरोधी है, यह भेद इस सामान्य नियम पर आधारित हैं कि प्रतियोगितावच्छेदक के साथ अन्योन्याभाव का विरोध है । यह विरोध कालभेद की अपेक्षा नहीं करता अर्थात् उन दोनों का विरोध इस रूप में नहीं है कि जिसमें जिस अन्योन्याभाव का प्रतियोगिता श्रवच्छेदक धर्म जिस काल में रहता है उस काल में वह अन्योन्याभाव उसमें नहीं रहता है, किन्तु यह विरोध इस रूप में है कि अन्योन्याभाव और प्रतियोगिता अवच्छेदक दोनों का अस्तित्व एक व्यक्ति में नहीं होता"
[ सर्वसम्मत व्यवहार के बल से शंका का निरसन ]
किन्तु यह मत समीचीन नहीं है क्योंकि 'इस समय अमुक व्यक्ति संसारी है मुक्त नहीं है' और 'अमुक समय अमुक व्यक्ति मुक्त है संसारी नहीं हैं' इस प्रकार का व्यवहार सर्वसम्मत है और इस व्यवहार के अनुसार समय भेद से संसारी और मुक्त एवं असंसारी और अमुक्त दोनों परस्पर भिन होकर सिद्ध है। यदि यह अनुपपत्ति उद्भावित की जाय कि - 'संसारी और प्रसंसारी तथा मुक्त और अमुक्त परस्पर भिन्न है तो एक व्यक्ति में संसारी और असंसारी तथा मुक्त एवं अमुक्त का व्यवहार सम्भव नहीं हो सकता' तो यह अनुपपत्ति एकान्तवादी के ही सिर पर खोट पहुंचाने वाली है, क्योंकि वह संसारी को सर्वथा संसारी हो और मुक्त को सर्वथा अमुक्त ही मानने के लिए विवश है, क्योंकि यह एकान्तवादी है।
अथ 'नित्यज्ञानादिमद्भिन्नः संसारी, तद्भेदश्व न तत्रेति संसार्येव स' इति चेत् १ कथं तर्हि मुक्ते 'असंसारी' इति व्यवहारः १ 'गौणः स' इति चेत् न, स्वेच्छामात्रानुरोधेऽपि लोकशास्त्र व्यवहाराननुरोधात् । अत एवाह मुक्तोऽपि चेत् स एव = वक्त एव न संसारी, इति हेतोः प्रागप्यस्य संसारिस्वभावत्वाभावात् अनिबन्धनः- निर्निमित्तः व्यपदेशः 'मुक्तः सः' इत्युल्लेखवान् ॥ २६ ॥
[ मुक्त दशा में असंसारी का व्यवहार गौण नहीं है ]
यदि यह कहा आय कि- 'नित्यज्ञान आदि के माश्रय से भिन्न व्यक्ति संसारी है और संसारी का मेव उस व्यक्ति में नहीं है इसलिए वह व्यक्ति केवल संसारी ही हैं तो ऐसा मानने पर मुक्त में असंसारी होने का व्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि इस व्यवहार को गौण बताकर इसकी उपपत्ति