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[ शास्त्रवा०ि स्त०७ श्लो० २७
की जाय तो ठीक नहीं हो सकता । ऐसा मानने पर अपनी इच्छा का अनुरोध तो हो जाता है किन्तु लोक व्यवहार, शारा यह शोध नहीं माना यतः उक्त व्यवहार लोकशास्त्र उभय दृष्टि से मुख्य व्यवहार है।
मुक्त में असंसारी व्यवहार लोक-शास्त्र दोनों दृष्टि से मुख्य होने के कारण कारिका के उत्तरार्ध में यह कहा गया है यदि मुक्त सदा मुक्त हो होता है संसारी कभी नहीं होता तो मुक्त में संसारित्वस्वभाव मुक्त होने के पूर्व भी न होने से 'स मुक्तः' वह मुक्त हुना, इस ध्यवहार का कोई निमित्त न हो सकेगा। फलत: जैसे संसारनिवृत्त दशा में 'स मुक्तः एव' व्यवहार होता है उसो प्रकार संसार दशा में भी उसमें मुक्त पद का व्यवहार होने लगेगा क्योंकि मुक्त सदा मुक्त ही होता है इस पक्ष में संसार के अभाव की दशा में मुक्त कहा जाने वाला व्यक्ति संसार दशा में भी मुक्त ही है ।।२६।।
एतदेव स्पष्टयतिमूलम् -संसाराद् विप्रमुत्तो यन्मुक्त इत्यभिधीयते ।
नैतत्तस्यैव तद्भावमन्तरेणोपपद्यते ॥ २७ ।। यत्-यस्मान , संसाराद् विप्रमुक्तो मुक्त इत्यभिधीयते, मुचेरवधिसापेक्षयात् । एतन् इत्थंभूतं मुक्तत्वम् तस्येव-संसारिण एव तनावमन्तरेण-मुक्तभावाभ्युपगम चिना नोपपद्यते। 'इष्यत एव तस्यैव तद्भावः धर्मिण्येव धर्मोयगमात्, धर्मिणोऽपि कश्चित्परावृत्तिस्तु नेष्यत' इति चेत् ? न, संसारिस्वभावं परित्यज्य मुक्तस्वभावोपादानाद् धर्मिणोऽपि कश्चित्परावृत्तेः । 'विशिष्टधर्मिभेदेऽपि शुद्धधभ्यभेदाद न दोप' चेत् ? अयमेव द्रव्यतोऽभेदः, पर्यायतश्च भेद इत्यनेकान्तो यदि 'स्यात'-पदानुविद्धः, तादृशाभेदस्यापि तादृशभेदनान्तरीयकत्रात् । मुक्तेऽपि तदा संसारिभेदेऽपि प्राक् तदभेदात् । 'तत्कालापेक्षया तत्र तद्भेद एवेति चेत् १ नैतावतवापेक्षाविश्रामः, तत्कालेऽपि तदन्यकालाऽभेदादिकृतापेक्षाऽऽनन्त्यात् । 'तावदपेक्षानियतवस्तुप्रतीतिर्न कथमपि स्यादिति चेत् ? सत्यम् , स्यात्पदमहिम्ना प्रधानोपसर्जनभावेन तथाप्रतीत्युपपत्तेः, प्रत्यक्षेऽपि सम्यग्दर्शनगुण महिम्ना तथाभावात: मिथ्यादृशा तु सापेक्षयोधमयोरेकत्र निमित्तभेदं बिना भानस्य संशयवद् दोपजन्यत्यनियमात । अत एव 'सदसतोरविशेषणात सर्व ज्ञानं मिथ्याशा विषयस्तम, सम्यग्दृशां च संशयादिकमपि तादृशदोषाजन्यत्वादविपर्यस्तम्' इति परिभाषन्ते । इत्यन्यत्र विस्तरः ॥ २७ ।।
[संसारी धर्मी का ही मुक्तधर्मी में परावर्तन ] कारिका २७ में पूर्व कारिका के वक्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-संसार से विमुक्त को हो मुक्त कहा गया है, क्योंकि मुच-धातु का अर्थ मुक्ति भवधि-सापेक्ष होती ही है, जब कोई किसी से बन्धा हुमा होता है तभी बन्धन से उसकी मुक्ति होती है। संसार से विमुक्त व्यक्ति को मुक्त कहना संसारी को ही कालान्तर में मुक्त माने विना