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[ शास्त्रातील तमलो. १०
तथा नया अपि प्रत्येक सम्यक्त्यव्यपदेशं न लभन्ते, समुदितास्तु तं लभन्ते, जहति च दुर्नयसंज्ञाः, इति कर्थ दृष्टान्तः ? इति चेत् । निमित्तमेदेन व्यपदेशमेद एवायं दृष्टान्तः, न सु प्रत्येकसमुदायभान इति दोषामावात् ।
[रत्नावली दृष्टान्त की अनुपपति शंका का परिहार ] उक्त व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शंका हो सकती है कि-"मयों के निरुपणार्य जो रस्साबलो का दृष्टान्त दिया जाता है वह उपपन्न नहीं हो सकेगा। आशय यह है कि जैसे बहमूल्य विभिन्नजातीय रत्नों को अब तक किसी एक तार में अपित नहीं किया आता तब तक वे रस्नायसी शम्ब से व्यवहरू नहीं होते । किन्तु जब उन्हें प्रथित कर लिया जाता है तब वे रत्नावली बार से व्यबहत होते हैं। और विमिन्न संज्ञाओं से उनका व्यवहार नियम हो जाता है। इसीप्रकार नय भी असमुदित अवस्था में सम्यक पद से व्यबहस नहीं होते किन्तु समुक्षित होने पर सम्यक पब से व्यवहुत होने लगते हैं मार पुर्नय शम्च से यहत होने की अवस्था पार कर जाते हैं। किन्तु यदि उक्तरोति से नयों का समुवाय न माम कर अन्योन्यमिषितस्य के प्राधार पर ती ज-हें सम्यक व से व्यवहृत किया जायमा ता स्नाषली का दृष्टान्त संगत नहीं हो सकेगा"-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त दृष्टान्त केवल निमित्तभेद से व्यवहारमेव होता है इतने ही अंश में है, प्रत्येक-समवाय माव विखाने में नहीं है। मतः हातामुपपसिकप दोष नहीं हो सकता । तात्पर्म यह है कि जैसे रत्नों में एकतार में संप्रथानरूप निमित से रश्नावली शब्द का ध्यपदेश होता है और असंप्रथमरूप निमित्त से विभिन्न जातोयरत्नबोधक विभिन्न माम से प्यवहार होता है उसीप्रकार अन्योन्यनिश्रितत्वरुप निमित से नया में सम्यक पद का ध्यपवेश और अन्योन्यनिश्चितत्वविरहरूप निमिस से दुर्नय शम्द से जयपदेश होता है।
नथापि नयाना प्रमाणले प्रमाण-चयः" इति पुनरुवा स्यात अप्रमाणत्वे चाऽपरिकछेदकत्वं स्यादिति चेत् ! न, नयवाक्ये तद्वनि तत्प्रकारकयोधजनकत्वस्य समारोपव्यवछदकत्वस्य निर्धारकत्वस्य था. इतरांशाप्रतिक्षेपित्वस्य का प्रमाणत्वस्य सत्त्वेऽप्यनेकान्तरम् ग्राहुकरवरूपस्य प्रमाणवाश्यनिष्टम्य प्रामाण्याऽभावेन 'नयप्रमाणः' इति पृथगुक्तेः।
[ प्रमाण और नय में लाक्षणिक भेद ] इस संदर्भ में दूसरी का यह हो सकती है शि 'नयों को मवि प्रमाण माना जायगा तो तस्वार्थ मुन (१.६) में प्रमाण और नप शब्द का जो एक साथ लपावान किया गया है उसमें पुक्ति दोष प्रसक्त होता है। यदि प्रयों को प्रमाण न माना जाएगा तो वे स्वविषय के निश्चाधक न हो सकेंगे।'-किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रामाण्य को प्रकार का होता है...एक नयवाश्यगत और सुसरा प्रमाणघाक्यगरा । उन में पहला-तदाश्रय में तत्प्रकारकबोधजमकरव, समारोपनियसंकाय, स्वविषधनिर्धारकस्य अथवा इसरनय द्वारा प्रस्तुत किये जानेपालि शंश का अविरोधिस्वाप है। दूसरा प्रामाण्य अनेकान्तवस्तुग्राहकत्वरूप है जो प्रमाणवाक्य में ही पता है-यवाक्य में नहीं रहता। उक्त तत्वार्थ सूत्र में तय ार के साथ प्रयुक्त प्रमाणशाम्ब द्वितीय प्रामाश्य के अभिप्राय से प्रयुक्त है।